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________________ ३२५ उद्बोधक कथाएं २४. लोहो सबविणासणो किसी नगर में दो मित्र रहते थे। एक का नाम था वामदेव और दूसरे का नाम था रूपसेन। दोनों में बचपन से ही प्रगाढ़ मैत्री थी। दोनों की एक दांत रोटी टूटती थी। जब तक दोनों दिन में एक बार एक दूसरे को नहीं देख लेते, परस्पर बातचीत नहीं कर लेते तब तक वे सुखपूर्वक नहीं बैठ सकते थे। उनका एक साथ मिलना जितना अनिवार्य था उतना ही अनिवार्य था सहगमन। जब भी वे कहीं जाते तो साथ-साथ जाते थे। इस प्रकार उनकी जिगरी दोस्ती को देखकर कुछ लोग आश्चर्य करते तो कुछ उनको शंका की दृष्टि से भी देखते थे। एक बार दोनों मित्र अपने भविष्य के विषय में चिन्तन कर रहे थे। अन्यान्य विषयों के अतिरिक्त उनका मुख्य चिन्तन था-आर्थिक पक्ष को मजबूत करना। उसके लिए उन्होंने परदेश में जाकर धन कमाने का मानस बनाया। दोनों की सहमति ही क्रियान्विति का हेतु बन गई। शुभ दिन और शुभ मुहूर्त में दोनों ने माता-पिता की अनुमति लेकर उत्साहपूर्वक परदेश के लिए प्रस्थान किया। सुदूर देश में पहुंच कर दोनों ने बुद्धिमत्ता और दक्षता के साथ व्यापार प्रारंभ किया। भाग्य ने साथ दिया और पुरुषार्थ ने अपना चमत्कार दिखाया। कुछ ही दिनों में व्यापार में आशातीत लाभ मिलने लगा। अल्पसमय में ही वे धनाढ्य व्यक्ति बन गए। उनके पास काफी धन अर्जित हो गया। एक दिन दोनों मित्रों को घर की याद आ गई। बचपन के बीते दिन तथा घटनाप्रसंग स्मृतिपटल पर नाचने लगे। एक मित्र ने अपने मित्र से कहा-मित्रवर! हमें परदेश में आए काफी वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। यहां आकर हमने कमाई भी बहुत की है। अब देश में माता-पिता हमें देखने के लिए आतुर हैं। वे हमारी प्रतीक्षा में पलक पांवड़े बिछाए हुए हैं। उनके बार-बार बुलाने के पत्र भी आ रहे हैं, इसलिए हम दोनों को एक बार अवश्य ही अपने देश लौट जाना चाहिए। बोलो, तुम्हारी क्या राय है? दूसरे मित्र ने अपने मन को खोलते हए कहा--मित्र! मैं जो कहना चाहता था वही बात तुमने मेरे कहने से पहले ही रख दी। अब मेरा मन भी कुछ उचट-सा गया है। मेरी भी यही भावना है कि अब हमें यहां से प्रस्थान कर देना चाहिए और अपने वृद्ध माता-पिता की सेवा में शेष दिन बिताने चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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