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________________ सिन्दूरप्रकर राजा बल अपने पुत्र महाबल कुमार को राज्यभार सौंपकर प्रव्रजित हो गए। बहुत वर्षों तक उन्होंने श्रामण्य धर्म का पालन किया और अंत मे वे सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो गए। ३२० कुमार महाबल अब युवराज से राजा बन चुके थे। वे कुशलता से राज्य का संचालन करते हुए अपने दायित्व का निर्वहन कर रहे थे। बचपन से ही कुमार के अचल, धरण, पूरण, वसु, वैश्रमण और अभिचन्द्रये छह मित्र थे। वे सभी बालसखा, समवयस्क और राजा थे। सभी में परस्पर प्रगाढ मैत्री थी। वे सभी साथ-साथ जन्म लेने वाले, साथ-साथ संवर्धित होने वाले, साथ में धूलिक्रीड़ा करने वाले, साथ-साथ यौवन में प्रविष्ट होने वाले, साथ-साथ विवाहित होने वाले, एक दूसरे में अनुरक्ति रखने वाले, एक दूसरे का अनुगमन करने वाले, एक दूसरे के अभिप्राय को समझने वाले तथा एक दूसरे की आन्तरिक इच्छा को पूर्ण करने वाले थे। वे अपने अधिकृत राज्य को संचालित करते हुए परस्पर एक दूसरे के राज्य में करणीय कार्य को भी सम्पादित कर रहे थे। एक बार छहों बालमित्र राजे एक स्थान पर मिले। उन्होंने एक साथ बैठकर सहचिन्तन किया- कोई भी प्रसंग हमारे सामने आए, उसे हमें मिल-ज -जुलकर एक साथ संपन्न करना है। चाहे वह कार्य परदेशगमन का हो, चाहे सहयोग का हो, चाहे वह सुख-दुःख का हो अथवा चाहे वह प्रव्रज्याग्रहण का हो। सभी मित्रराजा इस प्रस्ताव पर सहमत और वचनबद्ध हो गए। एक बार नगर के इन्द्रकुंभ उद्यान में धर्मघोष मुनि समवसृत हुए। राजा महाबल मुनि के वन्दनार्थ धर्मलाभार्थ वहां गए। मुनि का प्रवचन सुनकर राजा महाबल को वैराग्य उत्पन्न हुआ। उन्होंने धर्मघोष मुनि से प्रार्थना करते हुए कहा - भन्ते ! मैं संयमग्रहण करना चाहता हूं। मैं अपने छहों बालमित्रों को भी पूछ लेता हूं। उन सबके साथ मेरी प्रव्रज्याग्रहण करने की इच्छा है। धर्मघोष मुनि ने कहा- जैसी तुम्हारी इच्छा । राजा महाबल ने अपने छहों मित्रों के सामने संयमग्रहण की बात रखी। वे कब पीछे रहने वाले थे। वे सभी के सभी दीक्षा के लिए तैयार हो गए। राजा महाबल ने अपने पुत्र कुमार बलभद्र को राजसिंहासन पर अभिषिक्त कर दीक्षा के लिए अभिनिष्क्रमण किया। अन्य मित्र राजाओं ने भी अपने-अपने ज्येष्ठ पुत्रों को अपने-अपने राज्य का भार सौंप दिया और वे सभी शिविकाओं में बैठकर दीक्षा के लिए उद्यत होकर राजा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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