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________________ ३१८ सिन्दूरप्रकर हुए थे। वे सोच रहे थे-रूप के सिवाय मेरा किस पर अधिकार है? वही मेरा है, शाश्वत है, अविनश्वर है। यह रूपसंपदा कभी भी मेरे से विलग होने वाली नहीं है। इस धरती पर कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जो मेरे अतुलनीय रूप की तुलना कर सके । चक्रीश्वर सनत्कुमार ने अपनी रूपविभूषा को दिखाने के लिए स्नान करने में कुछ अधिक ही समय लगाया। उन्होंने शरीर को कर्पूर, अगर, कंकोल, कस्तूरी और चन्दन आदि सुवासित द्रव्यों से सुवासित किया और राजसिक वस्त्र-आभूषणों से विभूषित होकर वे निर्धारित समय पर राजसभा में पहुंच गए। वे रत्नजटित राज्यसिंहासन पर आरूढ हुए । उनके मस्तक पर छत्र शोभायमान था, दोनों ओर दो परिचारिकाएं चंवर डुला रही थी । महामात्य, सामन्त, सभासद् तथा नगर के अनेक गणमान्य लोग उनके परिपार्श्व तथा सामने विराजित थे। उस समय सम्राट् सनत्कुमार की रूपसंपदा सूर्य के प्रकाशपुंज की भांति देदीप्यमान थी । जयनाद करते हुए दोनों ब्राह्मणों ने पुनः राजसभा में प्रवेश किया और अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए कहा- राजन् ! आप त्रिलोकीनाथ हैं कि आपने हमें इस रूपसंपदा को देखने का पुनः अवसर दिया। ये रूप के पिपासु ब्राह्मण आपकी रूपसंपदा को देखकर कब तृप्त होने वाले हैं ? ज्योंही ब्राह्मणों ने अपनी तृप्ति, आत्मसंतुष्टि के लिए सम्राट् के रूप को निहारा तो सहसा उनका मन ग्लानि से भर गया । उन्होंने मन ही मन सोचा- कहां है वह पहले वाला सौन्दर्य ? रूप में पहले जो माधुर्य, सरसता, चमक, और तेजस्विता थी अब वह पीले पत्ते की भांति विरस, बीभत्स, कुरूप और भद्दी-सी प्रतीत हो रही है। जो फूल सुबह डाली पर खिला था, वही फूल मुरझाया हुआ लग रहा है । वे महाराज को कहें तो क्या कहें? वे कुछ कहने की स्थिति में नहीं थे, किन्तु सम्राट् ने ही उनसे पूछ लिया- क्यों विप्रवर! देखा न मेरा रूप ? कैसा लगा? पहले से सुन्दर अनुपम है न। यह सुनते ही ब्राह्मणों का माथा ठनका। नाक-भौं सिकोड़ते हुए वे बोले - सम्राट् ! सरसता विरसता में बदल चुकी है। पूर्व में हमने जिस रूपमाधुरी का पान किया था वह माधुरी अब विनष्ट हो चुकी है । शरीर में अनेक रोग उत्पन्न हो गए हैं। यदि आपको हम पर विश्वास न हो तो जरा थूक कर देख लें। ज्योंही सम्राट् ने पीकदान में थूका, सारी सचाई प्रत्यक्ष हो गई। उसमें असंख्य कीड़े बिलबिला रहे थे। इस सचाई को देखकर महाराज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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