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उद्बोधक कथाएं
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वे क्या कहते हैं? उनकी आज्ञा के बिना तो कुछ हो नहीं सकता, द्वारपाल ने कहा ।
जैसी आपकी सोच, ब्राह्मणों ने कहा।
भीतर जाकर द्वारपाल ने सम्राट् को नमस्कार करते हुए कहा - प्रभो ! दो विप्र मुख्य द्वार पर खड़े हैं। वे आपका साक्षात्कार करना चाहते हैं । बहुत उमंग से और बहुत दूर से आए हैं। यदि आपकी आज्ञा हो तो उनके दर्शन हो जाए और उनकी उत्कट इच्छा पूर्ण हो जाए। महाराज ने द्वारपाल को आज्ञापित करते हुए कहा- उनको अन्दर ले आओ। द्वारपाल स्वीकृति पाकर द्वार की ओर मुड़ा और कुछ क्षण बाद वह दोनों विप्रों को लेकर चक्रीश्वर के सम्मुख उपस्थित हो गया। ब्राह्मणों ने सम्राट् को देखते ही जयनाद कर साष्टांग प्रणाम किया, विरुदावली से उनका वर्धापन किया और एक गहरी श्वास छोड़ते हुए कहा - महाराजन्! आपकी रूपमाधुरी हमारे चित्त को मूढ कर रही है। संभवतः ऐसी रूप-लावण्यसंपदा धरती के किसी पुरुष के पास तो है नहीं, स्वर्ग के देवों को भी ऐसा रूप प्राप्त है या नहीं, कहा नहीं जा सकता। आज हमारी आंखें ऐसा मनोहारी रूप देखकर तृप्त नहीं हो रही हैं। मन करता है कि हम विस्फारित नेत्रों से नलिनी के पराग में प्रसक्त बने भ्रमर की तरह रूपसुधा का पान करते रहें। आपके रूप की हम जितनी अधिक महिमा करें उतनी ही थोड़ी है।
वे विप्रदेव मन ही मन सोच रहे थे कि प्रथम स्वर्ग के स्वामी सौधर्मेन्द्र ने जिस रूप लावण्य की प्रशंसा की है वह उनकी कल्पना से अधिक स्तुत्य, सत्यापित और प्रत्यक्षीभूत है । ऐसे सौन्दर्य को कब तक निहारा जाए। उससे कब संतुष्टि, तृप्ति होने वाली थी ? आखिर उन्हें जाना था। जब वे जाने को तैयार हुए तो सम्राट् ने अपने रूप की प्रशंसा से फूलते हुए कहा - महानुभावो ! अभी तो तुम लोगों ने मेरे असली रूप को नहीं देखा है। यह तो रूप की छाया मात्र है। अभी तो मैं शयन कर ही उठा हूं। जब मैं स्नानादि से निवृत्त होकर वस्त्रालंकारों से विभूषित होकर राजसभा में बैठूं तब तुम मेरे रूप को देखना। उसकी छटा कुछ और ही निराली होगी।
अच्छा महाराजन्! जैसी आपकी आज्ञा । हम पुनः उस अवसर को भी प्राप्त करेंगे, यह कहकर दोनों विप्र वहां से चले गए ।
सम्राट् सनत्कुमार के मनोभावों में रूप का अहंकार नृत्य कर रहा था। वे अपने रूप की प्रशंसा सुनकर मन ही मन अहंकार से गर्वित बने
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