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सिन्दूरप्रकर वे केवलज्ञान के आलोक से आलोकित हो गए। अन्त में सभी कर्मों का क्षय कर वे सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो गए।
२१. रूप का अहंकार प्रभात का मधुरिमापूर्ण वातावरण। प्राची दिशा में नवोदित नभोमणि की प्रसृत सुनहली रश्मियां। चक्रवर्ती सनत्कुमार का सप्तभौम राजप्रासाद। सम्राट् सनत्कुमार हस्तिनापुर के महाराज अश्वसेन और महारानी सहदेवी के अंगज थे। राजप्रासाद बाल रश्मियों का स्पर्श पाकर सुवर्ण की भांति चमक रहा था। उसके मुख्यद्वार पर मुस्तैदी से खड़े हुए द्वारपाल चौकन्ने होकर पहरा दे रहे थे। ____ अचानक कानों में एक आवाज सुनाई दी-महाराज सनत्कुमार की जय हो! विजय हो! हस्तिनापुर सम्राट् चिरायु हों! चिरायु हों! द्वारपालों ने अभिमुख होते हुए उनकी ओर देखा। उनके ललाट पर तिलक-छापे लगे हुए थे। गले में अनेक प्रकार की मालाएं झूल रही थी। केशराशि ग्रंथी हुई थी। वे जाति से ब्राह्मण लग रहे थे। द्वारपालों ने उनसे आने का प्रयोजन पूछा। उन्होंने कहा-हम काफी दिनों से महाराज सनत्कुमार के रूप-लावण्य की अत्यधिक गुणगाथा सुन रहे हैं। हम कितने मन्दभागी हैं कि अभी तक हमने उस कमनीय रूप का नेत्रपान नहीं किया। ये प्यासी अखियां आज उस सौन्दर्य को पाना चाहती हैं, अपने आपको तृप्त करना चाहती हैं। पता नहीं, जीवन का अन्त कब हो जाए, मन की मुराद धरी की धरी न रह जाए, यही सोचकर हम यहां आएं हैं। चाहते हैं कि हमारी वह चिरपालित मनोकामना आज ही पूर्ण हो जाए, प्रभु के दर्शन मिल जाएं। द्वारपाल ने कहा-विप्रवर! आप जिस प्रयोजन से यहां आए हैं वह प्रयोजन तो महाराज की विशेष अनुमति से ही संभव हो सकेगा। क्योंकि सुबह का समय महाराज से मिलने का समय नहीं है। उनसे तो राजसभा में ही मिला जा सकता है।
हम बहुत दूर से आए हैं और हमें जाना भी शीघ्र है। हमें ज्ञात नहीं था कि महाराज सुबह नहीं मिलते, अन्यथा हम नहीं आते। अब आ गए तो महाराजश्री के दर्शन कर ही जाएंगे। यदि आप कृपा करें तो हमें उनके दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हो सकता है।
खैर, अभी आप लोग यहीं ठहरें। मैं महाराजश्री के पास जाता हूं।
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