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________________ उद्बोधक कथाएं ३१५ हो रहे थे और अत्यधिक अनुनय-विनयपूर्वक राज्यभार ग्रहण करने का आग्रह कर रहे थे। पर मनस्वी व्यक्ति के उठे चरण कब रुकने वाले थे ? वे जो बात मन में धार लेते हैं वही कर दिखाते हैं । मनस्वी बाहुबलि के चरण भी अज्ञातपथ की ओर बढ़ गए और वे निर्जन वन में जाकर कायोत्सर्ग प्रतिमा में अवस्थित हो गए। व्यक्ति के भीतर का अहंकार निश्चित ही साधना को आच्छन्न करता है। मुनि बाहुबलि चले तो थे साधना के लिए, पर उनके भीतर रहा हुआ अहंकार उनकी साधना में बाधक बन गया। बाहुबलि ने सोचा- यदि मैं पिताश्री भगवान ऋषभ के पास जाऊंगा तो मुझे अपने पूर्वदीक्षित लघु भाइयों को वन्दना करनी होगी। अच्छा है, यहीं मैं अकेला ही साधना करूं । कायोत्सर्ग की साधना करते-करते उन्हें बारह महीने बीत गए, फिर भी वे उस बिन्दु पर नहीं पहुंचे जहां सिद्धि का दर्शन होता है। भगवान ऋषभ ने केवलज्ञान के द्वारा उस स्थिति को जाना। उन्होंने बाहुबलि को प्रतिबोध देने के लिए ब्राह्मी और सुन्दरी को वहां भेजा। दोनों भगिनियों ने उनको प्रबुद्ध करते हुए कहा - बन्धुवर ! उतरो तुम गजराज से। बहिनों के द्वारा कहे गए वाक्य दो-तीन बार बाहुबलि के कानों से टकराए। उनका ध्यान क्षणभर के लिए टूटा। उन्होंने सोचामैं गज पर कहां चढा हुआ हूं? मैं तो नीचे खड़ा हूं। फिर ये वाक्य किसलिए और किसके लिए कहे जा रहे हैं? क्या सचमुच मैं गजराज पर चढा हुआ हूं? कौनसा गजराज ? इस प्रकार बाहुबलि वाक्य के रहस्य को जानने के लिए उसकी अनुप्रेक्षा कर रहे थे। तत्काल उन्हें अवबोध हुआ कि उनके भीतर अहंकाररूपी गजराज विद्यमान है। वे अपने अहं के कारण भगवान ऋषभ के पास भी नहीं गए, वय में छोटे व्रती भाइयों को वन्दन करना न पड़ जाए, इसलिए भी वे एकाकी साधना करते रहे। अपनी भूल का अहसास होने पर वे तत्काल संभले और मन में सोचा, यह कैसा अहं ? कौन छोटा, कौन बड़ा? वास्तव में व्रती ही बड़ा होता है। अपनी बहिनों की प्रेरणा पाकर उनके अन्तर्चक्षु खुल गए। उन्होंने आंखें खोली, सामने देखा तो ब्राह्मी-सुन्दरी वहां खड़ी थी। अपनी साधना के द्वारा वे पहले ही अपने अध्यवसायों को विशुद्धतम बना चुके थे । किन्तु अहं की सूक्ष्म परत ने केवलज्ञान के प्रकाश को रोक रखा था। ज्योंही बाहुबलि ने अपने लघु बान्धवों को वन्दन के लिए चरण आगे बढाए, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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