________________
३१२
सिन्दूरप्रकर ने खिन्नता से कहा-देवानुप्रिय! तुम इतनी देर कहां थे? आज तो मेरा पाला एक धोबी से पड़ गया। उसने मेरी इतनी अधिक धुनाई की कि मेरे शरीर का अंग-अंग दर्द कर रहा है। काश! तुम पास में होते तो उसकी क्या मजाल, जो वह मुझे हाथ लगाता।
देव ने हाथ जोड़कर विनम्रभाव से कहा-प्रभो! आप सत्य कह रहे है। आज मैं रास्ते में एक विचित्र नाटक देखने लग गया।
ऐसा वह कौन-सा नाटक था, जिसके कारण तुम्हें रुकना पड़ा, मुनि ने देव से पूछा।
भन्ते! एक धोबी और एक चाण्डाल परस्पर लड़ रहे थे। उनकी लड़ाई देखने में कुछ समय लग गया, इसलिए आने में विलम्ब हो गया।
अरे देवानुप्रिय ! वह चाण्डाल नहीं, मैं ही था। शायद तुमने गलतफहमी से मुझे ही चाण्डाल समझ लिया। __देव ने स्पष्ट करते हुए कहा-महात्मन्! इस दुनिया में किसकी ताकत है, जो मेरे रहते हुए आपको हाथ लगा दे। लड़ाई के समय आप अपने आप में विद्यमान नहीं थे, अपने स्वरूप में नहीं थे। वहां तो आपके भीतर क्रोधरूपी चाण्डाल विद्यमान था। वही धोबी के साथ झगड़ा करा रहा था। मैं देखता रहा कि कौन जीतता है और कौन हारता है? क्रोधरूपी चाण्डाल तो हार गया और धोबी जीत गया, इसलिए आपको यह कष्ट सहन करना पड़ा। अब आप अपने स्वरूप में आए हैं। अब कोई आपको हाथ लगाए, उसे मैं देख लूंगा।।
मुनि देव के कहने का भावार्थ समझ गए। उन्होंने देव के वचनों की अनुमोदना करते हुए कहा-सत्य है, देवानुप्रिय! उस समय मैं क्रोधाविष्ट था। वस्तुतः जिस घर में क्रोध का निवास होता है वहां देवशक्ति भी किसी की सहायता नहीं करती, उसे अछूत समझती है। इसलिए क्रोध चांडाल है।
२०. साधना में बाधक है अहं बीहड़ और डरावना जंगल। चारों ओर पर्वतमालाओं से घिरा हुआ। सघन वनलताओं, कंटीली झाड़ियों तथा अनेक वृक्षराजि से संकीर्ण। दिन में भी सूर्य के दर्शन की दुर्लभता। निरन्तर बरसते हुए बादल। प्रकाश में भी दुर्दिन की प्रतीति। पथिकों के आवागमन के लिए सर्वथा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org