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________________ उद्बोधक कथाएं ३१३ दुर्गम बना हुआ। चारों ओर सुनाई देती हुई हिंस्र पशुओं की आवाजें । ऐसी घोर भयानक अटवी में जहां दिन में भी मनुष्य का दर्शन दुर्लभ होता है वहां महान् साधक बाहुबलि प्रतिमा की भांति निश्चल होकर ध्यानस्थ खड़े थे। उनके शरीर पर कोई वस्त्र नहीं था, पर वनवल्लरियों ने उनके शरीर को परिवेष्टित कर लिया था। वे अगारहीन थे, किन्तु अनेक पक्षियों ने उनके शरीर पर घोंसलें बनाकर उसे अपना अगार बना लिया था। वे भोजन - पानी से सर्वथा मुक्त थे, पर शान्तसुधारस और सहिष्णुता की खुराक उन्हें निरन्तर मिल रही थी। वे शरीरबल, मनोबल और संकल्पबल से पुष्ट थे। वे ध्यान-मुद्रा में वैसे ही तल्लीन थे कि मानो कोई पर्वत अपना सिर ऊंचा किए खड़ा हो। ऐसे महान् साधक के लिए आत्म-साक्षात्कार करना ही एकमात्र लक्ष्य था । वे मुनि बाहुबलि भरत के अनुज और भगवान ऋषभ के सौ पुत्रों में ज्येष्ठ पुत्र थे। वे बड़े ही पराक्रमी, बलवान्, योद्धा और स्वाभिमान के धनी थे। उनकी माता का नाम सुनन्दा और भगिनियों का नाम ब्राह्मी और सुन्दरी था। भगवान आदिनाथ जब दीक्षित हुए तब उन्होंने अयोध्या का राज्य भरत को सौंपा और बहली प्रदेश का राज्य बाहुबली को दिया। अन्य पुत्रों को अन्य अन्य देशों का राज्य सौंपकर वे राज्यभार से निवृत्त हो गए। पिता के संयमपथ स्वीकार करने के बाद भरत के मन में राज्यलालसा की भूख उत्पन्न हुई। उस भूख को उन्होंने षट्खंडों पर अपना आधिपत्य जमाकर शान्त किया। सम्राट् भरत चारों ओर अपनी विजयपताका फहराकर अपूर्व उल्लास के साथ अयोध्या लौट रहे थे। एक दूत ने मंगलकार्य में अमंगल की सूचना देते हुए कहा - महाराजन्। आयुधशाला में चक्ररत्न प्रवेश नहीं कर रहा है। तत्काल भरत का ध्यान अपने निन्यानवें भाइयों की ओर आकृष्ट हुआ। उन्होंने सोचा - अभी तक तो मैंने अपने भाइयों को भी अपनी आज्ञा में नहीं लिया है, फिर चक्ररत्न आयुधशाला में कैसे प्रविष्ट होगा? उन्होंने संदेश के माध्यम से अपनी आज्ञा की बात अट्ठानवें भाइयों तक पहुंचाई। अट्ठानवें भाई भरत की अधीनता में रहें, यह उन्हें अभीष्ट नहीं था, इसलिए वे सभी उस पथ पर बढ़ गए जहां स्वतन्त्रता की डोर उनके हाथ में थी । वे सब भगवान ऋषभ के पास मुनि बन गए । अब केवल बाहुबलि ही भरत की अधीनता से बाहर थे। भरत ने For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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