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सिन्दूरप्रकर कर। क्रोध को विफल करना ही वस्तुतः सच्चा पराक्रम है।
मां की प्रेरणा ने पुत्र के जीवन को रूपान्तरित कर दिया। पुत्र के मानस में क्रोध का जो उफान उठा था वह मां के सद्वचनों से शान्त हो गया। उसने मां की बात को मानते हुए तलवार को एक ओर रख दिया और हत्यारे के अपराध को क्षमा करते हुए उसे जीवनदान दे दिया। यह है क्रोध का उपशमन और यह है क्षमा की साधना।
१९. चांडाल है क्रोध __ एक मुनि घोर तपस्वी थे। तपश्चर्या उनके जीवन का व्रत था। सारा जीवन उन्होंने तप की कठोर साधना में लगा दिया। जब भी देखो उनकी तपस्या तीन दिन के उपवास से कम नहीं होती थी। उन्होंने अपने जीवन में कई मास-मास के उपवास तथा अर्धमास के उपवास किए थे। आठ दिनों का उपवास तो वे कई बार कर चुके थे। पारणे के दिन को छोड़कर शेष दिन तपस्या में ही बीतते थे। तपस्या से उनका शरीर भी सूख कर कृश हो गया था। वे तपस्या को कर्मनिर्जरण के लिए एक परमौषध मानते थे, इसलिए वे तपस्या में परम आनन्द का अनुभव करते थे। उनकी तप:साधना से प्रभावित होकर एक देव भी निरन्तर उनकी सेवा में रहने लगा। मुनि को तप के प्रभाव से मिलने वाली देवशक्ति का भी कुछ गर्व था।
एक दिन तपस्वी मुनि कहीं जा रहे थे। तपती दुपहरी का समय। नगर की तंग और संकरी गलियां। वे किसी संकीर्ण गली से होकर गुजर रहे थे। सामने से एक धोबी अपने गधे पर कपड़ों की गठरी लादे आ रहा था। मुनि ने पहले निकलने की उतावली में धोबी को एक ओर हट जाने का संकेत किया। धोबी ने मुनि की मन्द गति को देखकर उनको लांघकर पहले निकलने का प्रयास किया। मैं पहले, मैं पहले इस रस्साकसी में मुनि को अचानक ऐसा धक्का लगा कि वे धड़ाम से नीचे गिर गए। तपस्या से उनका शरीर कृश था, इसलिए वे थोड़ी-सी टक्कर को भी सहन नहीं कर सके।
नीचे गिरते ही मुनि को क्रोध आ गया। क्रोध के आवेश में मुनि ने धोबी के प्रति अनर्गल प्रलाप करना प्रारंभ कर दिया-कैसा अन्धा अशिष्ट व्यक्ति है कि देखकर नहीं चलता। चलने में कुछ होश तो होना
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