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________________ उद्बोधक कथाएं ३०९ के प्रांगण में बैठी हुई थी। उसने जोर से मां को पुकारा और कहामां! मैं तेरे पुत्र के हत्यारे और मेरे भाई के प्राणघातक को पकड़कर ले आया हं। यह दुष्ट आततायी कितने-कितने कष्टों को सहने के बाद बड़ी मुश्किल से पकड़ में आया है। अब मैं अधिक प्रतीक्षा नहीं करना चाहता। मुझे मेरी तलवार दो। अभी मैं इसे भाई की हत्या का मजा चखाता हूं। यह सुनकर हत्यारे का कलेजा भय के मारे धड़कने लगा, हाथ-पैर मानो सुन्न हो गए। क्रूर मौत को अपने ऊपर मंडराते देखकर उसकी आंखों से आंसू की धारा बह चली। वह बार-बार गिड़गिड़ाने लगा, पैरों में पड़ने लगा और पल्ला पसार कर जीवन की भीख मांगने लगा। क्षत्रियपुत्र का मानस इन सब बातों से कब द्रवित होने वाला था? उसकी तलवार खून की प्यासी थी। उसे शत्रु की जान लेकर ही अपने को शान्त करना था। अन्त में हत्यारे ने अपने बचाव के लिए मुंह में तिनका रखते हुए कहा-मां! मैं तेरी गाय हूं, तेरी शरण में हूं। गाय की रक्षा करना अब तेरे हाथ है। क्षत्रियपुत्र की तलवार शत्रु पर चलने ही वाली थी कि माता ने एकाएक उसका हाथ पकड़ते हुए कहा-बेटा! हम क्षत्रिय हैं। क्षात्रधर्म का पालन करना हमारा कर्तव्य है। इसलिए गाय, स्त्री, शिशु एवं शरणागत की हत्या करना हमारा धर्म नहीं है। यह भातृघातक, जो अब हमारी गाय बन गया है उसे मारना उचित नहीं है। अतः तलवार को एक ओर रखकर इसे जीवनदान देना ही तेरी विवेकशीलता है। क्षत्रियपुत्र मां के वचनों को सुनकर रोष से भर गया। उसने मां को कहा-मां! तुम भी क्या कहती हो? जिसके पीछे मैं बारह-बारह वर्षों तक भटकता रहा, सारे जीवन को मैंने अस्त-व्यस्त बनाया तब कहीं बड़ी मुश्किल से यह पकड़ में आया। फिर तुम इस हत्यारे को छोड़ने की बात कहती हो, यह तो परोसी हुई थाली को ठोकर मारने जैसी बात है। इसलिए मां! तुम मुझे मत रोको। अपने भाई का बदला लेने दो। मां ने शान्तस्वर में पुत्र को समझाते हुए कहा-वत्स! मैं जानती हूं कि तेरा क्रोध निष्प्रयोजन नहीं है। तूने इसको पकड़ने-खोजने में वर्षों के वर्ष बिताए हैं। पर इस बात को भी समझो कि मारने वाला बड़ा नहीं होता, बड़ा होता है क्षमा करने वाला। जब इसने अपने अपराध को स्वीकार कर लिया है और गाय बनकर अपनी शरण में आ गया है तब इस पर तलवार का प्रहार करना क्षत्रियधर्म नहीं है। शरणागत की रक्षा करना क्षात्रधर्म है। इसलिए तू अपने धर्म को समझकर क्रोध को शान्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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