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________________ ३०८ सिन्दूरप्रकर गया। इस घटना से छोटे भाई का मन बहुत आहत हुआ और उसकी आंखों से खून टपकने लगा। उसने मां से कहा-मां! मेरे में रजपूती खून है। मैं क्षत्राणी का बेटा हूं। मैंने तेरी कुक्षि से जन्म लिया है। मेरे भाई को कोई मार जाए और मैं सुखपूर्वक घर में बैठा रहूं, यह मुझे बर्दाश्त नहीं है। जब तक मैं भाई के हत्यारे को न खोज लूं, उसे जीवित पकड़कर तेरे सामने प्रस्तुत न कर दूं और उसे तेरे ही सामने जान से मारकर वैर का बदला न ले लूं तब तक मैं अपना मुंह नहीं दिखाऊंगा, इस दृढ़प्रतिज्ञा के साथ छोटा भाई घर से निकल गया। शत्रु को भी यह पता लग गया कि क्षत्रियपुत्र मुझे खोजने के लिए घर से निकला है। इसलिए वह भी भय के मारे कभी कहीं, कभी कहीं अपने आपको छिपाता हुआ समय बिताने लगा। इधर क्षत्रियपुत्र शत्रु को खोजता हुआ नगर-नगर, गांव-गांव, अरण्य, पर्वत, नदी, तालाब तथा कन्दराओं आदि के चप्पे-चप्पे को छान रहा था तो उधर भाई का हत्यारा येन केन प्रकारेण अपनी जान बचाने में लगा हुआ था। क्षत्रियपुत्र को रात-दिन एक ही धुन सवार थी कि उसे शत्रु का कहीं पता लग जाए। न उसे खाने-पीने की सुध थी और न कहीं सुखपूर्वक विश्राम करने की। जब भी उसे किसी स्रोत के द्वारा गुप्त सूचना मिलती तो वह शत्रु की दिशा में प्रस्थान कर देता और शत्रु को खोज निकालने का प्रयत्न करता। उसने बहुत प्रयास किया, पर शत्रु उसके हाथ नहीं लगा। इस प्रकार क्षयित्रपुत्र को भटकते-भटकते बारह वर्ष बीत गए। नीतिकार कहते हैं-पुरुषार्थ कभी व्यर्थ नहीं जाता। वह निश्चित ही सफल होता है। पर कभी-कभी पुरुषार्थ भी व्यक्ति के धैर्य और सहिष्णुता का परीक्षण करता है। समय का विपाक होने पर वह भी अवश्य फल देता है। क्षत्रियपुत्र को बारह वर्षों तक सफलता नहीं मिली। पर एक दिन अचानक भाई का हत्यारा उसके हत्थे चढ़ गया, उसने उसे लोहे की सांकलों से बांध लिया। एक ओर शत्रु को देखकर क्षत्रियपुत्र का खून खौल रहा था कि अभी ही तलवार के एक झटके से इसका काम तमाम कर देना चाहिए तो दूसरी ओर वह मां के सामने कृत प्रतिज्ञा से भी बन्धा हुआ था। उसने सोचा-अब तो मैं इसे मां के सामने ही ले जाकर परलोक पहुंचाऊंगा। कुछ दिनों के पश्चात् क्षत्रियपुत्र अपने घर पहुंचा। वृद्धा माता घर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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