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उद्बोधक कथाए
कुछ दिनों के बाद जब मेरे घाव सूख जाते तो वह पुनः मुझे पौष्टिक पदार्थों के द्वारा पुष्ट करता और फिर उसी प्रकार मेरे शरीर से खून निकालता। इस प्रकार मैंने घोर नारकीय वेदनाओं को सहते हुए अपना समय व्यतीत किया। अत्यधिक खून निकलने के कारण मेरा शरीर पीले पत्ते की भांति शोभाविहीन हो गया। कुछ दिनों के बाद मेरे माता-पिता
और भाइयों को मेरा घर से पलायन करने का समाचार मिला। वे काफी चिन्तित हुए। सर्वत्र मेरी खोज होने लगी। एक दिन अकस्मात् मेरा भाई उसी नगर में व्यापार करने के लिए आया हुआ था। वह मुझे खोजता हुआ उसी व्यापारी के घर पहुंच गया। मैंने उसे पहचान लिया। उसने व्यापारी को मुंहमांगा धन देकर मुझे उसके चंगुल से मुक्त करा लिया। मैं अपने घर आ गई, परिवार वालों से मिली। मेरे पतिदेव सुबुद्धि को जब मेरे आने का समाचार ज्ञात हुआ तो वे मुझे ससम्मान घर ले गये।
हे मुने! यदि मैं क्रोधावेश के कारण घर से बाहर नहीं निकली होती तो क्यों मुझे इतने अधिक कष्टों को सहन करना पड़ता? ये सब क्रोध के ही कटुक परिणाम हैं। परिवार वालों ने मुझे कितना समझायाबुझाया, पर मेरे जीवन में कोई बदलाव नहीं आया, मेरा गुस्सा कभी शान्त नहीं हुआ। जब मैंने जीवन में अनेक ठोकरें खाई तब मेरा जीवन बदला है, गुस्सा भी शान्त हुआ है। इसलिए मैं क्षमा को धारण कर किसी भी परिस्थिति में क्रोध को उभरने नहीं देती।
मुनियों ने अपने मूलरूप देवत्व को प्रकट करते हुए कहा-भट्टा! सौधर्मसभा में इन्द्र ने तुम्हारी जैसी प्रशंसा की थी ठीक तुम उसी के अनुरूप हो। तुम्हारी क्षमा को मनुष्य तो क्या देव भी चलित नहीं कर सकते। हमने तुम्हारी परीक्षा के लिए यह सब प्रपंच रचा था। तुम अपनी कसौटी में खरी उतरी हो। धन्य है तुम्हारी क्षमाशीलता, धन्य है तुम्हारी शान्तवृत्ति, यह कहते हुए देव अपने स्थान पर चले गए।
१८. क्रोध को विफल करो
किसी गांव में एक क्षत्रिय परिवार रहता था। उस परिवार से दो सगे भाई तथा उनकी बहुएं और एक वृद्धा माता थीं। पिता का पहले ही देहावसान हो गया था। एक बार गांव के किसी व्यक्ति ने अपनी रंजिश के कारण बड़े भाई की हत्या कर दी। वह हत्या कर कहीं भाग
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