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सिन्दूरप्रकर दरवाजा खटखटाया, पर मैंने नहीं खोला। वह मेरे आदेश की अवहेलना का कठोर परिणाम था। उन्होंने दरवाजा खुलवाने के लिए बहत प्रयास किया, विलम्ब से आने का कारण भी बताया, मुझसे माफी भी मांगी, पर मैं क्रोधाविष्ट थी। क्रोध ने मुझे अन्धा बना दिया था। उस समय मैंने उचित-अनुचित का विवेक ही खो दिया। जैसे-तैसे पतिदेव के बहुत मनुहार करने पर मैंने दरवाजा खोला। उन्होंने मुझे कुछ कहना चाहा, पर मैं उनकी सुनी-अनसुनी कर घर से बाहर निकल गई। __अन्धेरी रात। अकेली महिला। न कोई लक्ष्य और न कोई मार्ग। मैं बिना लक्ष्य के अनजाने और निर्जन पथ पर चली जा रही थी। कुछ दूर जाने पर मैं चोरों के हाथ चढ़ गई। वे मुझे पकड़कर चोरपल्ली में ले गए और अपने स्वामी को सौंप दिया। तस्करपति ने मेरे कीमती वस्त्र और आभूषण ले लिए। वह मेरे रूप-लावण्य पर मुग्ध होकर मेरे सतीत्व को लूटने के लिए तैयार हो गया। मैं उसके बन्धन में अवश्य थी, पर मेरा पौरुष स्वतंत्र था। मेरे पौरुष के आगे मेरा शील अखंडित और सुरक्षित रह गया। उसकी इच्छा पूरी न होने के कारण वह मुझे कोड़ों से पीटता था। उसकी मां ने उसे समझाते हुए कहा-अरे पापी! तू इसे मत मार, मत सता। यह सती है। सती को सताने का फल अच्छा नहीं होता। मां के कहने पर उसकी प्रवृत्ति में कुछ सुधार हुआ, उसे अपनी दुश्चेष्टाओं को दबाना पड़ा, पर मुझे अनेक प्रकार की यातनाओं का सामना करना पड़ा।
एक दिन तस्करपति ने मुझे एक व्यापारी के हाथ बीस हजार नोहरों में बेच दिया। मैं उसके घर आ गई। मेरे सौन्दर्य ने उस व्यापारी को भी कामुक बना दिया। उसने भी मेरे सतीत्व को खंडित करने के लिए अनेक प्रयत्न किए। मेरे पौरुष के आगे उसका प्रयास भी विफल रहा। वह व्यापारी बहुत क्रूर था। वह मुझे प्रतिदिन पौष्टिक और स्वादिष्ट भोजन कराता था। उससे मेरे शरीर के रक्त में वृद्धि होने लगी। वह मेरे कोमल अंगों को छूरे से चीरकर खून निकालता था। मैं रोती रहती, हाय-त्राय करती, पर वहां मेरा रुदन सुनने वाला कोई नहीं था, कोई मेरी सहायता करने वाला भी नहीं था, फिर वह व्यापारी उस खून को एक भांड में रख देता था। जब रक्त में काफी मात्रा में रक्त वर्ण के कृमि उत्पन्न हो जाते तो वह उन कृमियों के रंग से वस्त्रों को रंगने का कार्य करता था तथा उन रक्तरंजित वस्त्रों को अत्यधिक कीमत में बाजार में बेचता था।
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