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________________ उद्बोधक कथाएं ३०५ बहिन! क्या तुम हमें अपने जीवन का वृत्तान्त बता सकोगी? जिसके कारण तुमने क्रोध के दुष्परिणामों को भोगा, मुनिद्वय ने कहा। 'क्यों नहीं' महाराज? अवश्य ही मैं उसे आपके सामने रखने का प्रयास करूंगी। मैं अवन्ती नगरी के धनाढ्य श्रेष्ठी धन की इकलौती पुत्री हूं। मेरी माताजी का नाम कमलश्री है। मैं आठ भाइयों की लाडली बहिन हूं। इकलौती होने के कारण मेरे पर माता-पिता तथा भाइयों का अत्यधिक लाड-प्यार रहा। मैंने जो चाहा वही काम मेरे अनुरूप हुआ। मैंने जो मांगा वही मुझे मिला। कोई मुझे तुकारा नहीं दे सकता था, इसलिए मेरा नाम भी अतूंकारी भट्टा पड़ गया। अत्यधिक लाड-प्यार के कारण मेरा बचपन से ही स्वभाव बिगड़ गया। मैं अत्यधिक निरंकुश हो गई। मैं किसी के अनुशासन को नहीं सह सकती थी, दूसरों को अपने अनुशासन में चलाना चाहती थी। जब मैं यौवनावस्था में प्रविष्ट हुई तब कोई भी युवक मेरी इस प्रवृत्ति के कारण मुझसे शादी करने को तैयार नहीं था। एक बार राजा का मंत्री सुबुद्धि मेरे रूप-लावण्य पर मोहित हो गया। उसने विवाह का प्रस्ताव मेरे पिता के सामने रखा। पिता ने उसके प्रस्ताव को मानकर यही कहा कि जो भी मेरी पुत्री के कथनानुसार चलेगा उसी के साथ मेरी पुत्री का पाणिग्रहण होगा। मंत्री सुबुद्धि ने उस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया और बड़ी धूमधाम से मेरा विवाह उसके साथ संपन्न हो गया। मैंने ससुराल आते ही अपने आदेश का जाल चारों ओर बिछा दिया। कोई भी मेरे आदेश की अवहेलना नहीं कर सकता था। मैंने अपने पति को भी सावचेत कर दिया कि सूर्यास्त से पहले-पहले उसे घर आना है। वह भी मेरे कथनानुसार चलने लगा। एक दिन कुछ चुगलखोरों ने राजा से शिकायत करते हुए कहा-महाराज! आपका मंत्री तो अपनी पत्नी का दास बना हुआ है। वह उसके कहे अनुसार सारा कार्य करता है। उसकी दृष्टि में पत्नी का आदेश मुख्य है, बाकी सब गौण है। इससे राज्य की व्यवस्था ही चरमरा जाएगी। मंत्री का भी महत्त्वपूर्ण दायित्व होता है कि वह भी राज्य के कार्यों में अपनी भागीदारी निभाए। दूसरे दिन राजा ने कार्यवश मंत्री को राजसभा में ही रोक लिया। गुप्त मंत्रणा में लगभग रात्रि के बारह बज गए। पतिदेव रात को विलम्ब से घर पहुंचे। तब तक मेरा क्रोध आकाश तक पहुंच चुका था। उन्होंने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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