________________
३०४
सिन्दूरप्रकर अपने हाथ के सहारे से उसे उठाया। शरीर के उस भाग को दबाया, जहां चोट लगी थी और पूछा-चेटि! कहीं ज्यादा चोट तो नहीं लगी। दासी ने रुआंसे स्वर में आंखों में पानी भरते हुए कहा-मांजी! मुझे आज क्या हो गया है? मैं जो भी काम करती हूं वह सब उल्टा ही उल्टा पड़ रहा है। लगता है मुझ अभागिन के हाथों इतना बड़ा नुकसान होना लिखा था। यह मेरा ही प्रमाद है अथवा कोई अदृश्य शक्ति परोक्ष में मुझ से यह काम करा रही है। भट्टा ने उसे आश्वस्त करते हुए कहा-कोई बात नहीं, वस्तु का नुकसान हो गया सो गया। पर हम मुनियुगल को वह औषध-वस्तु नहीं दे सके जिसकी उनको अत्यन्त आवश्यकता थी। खैर, तुम यहीं ठहरो। अभी अपने लक्षपाक तैल का एक घड़ा और शेष है। मैं स्वयं उसे ले आती हूं, यह कहकर भट्टा कमरे में जाने के लिए उद्यत हुई। ___ मुनियुगल ने संकेत से उसे रोकते हुए कहा-भट्टा! अब तुम जाने दो। हमारे निमित्त से तुम्हें काफी नुकसान हो गया है, बहुमूल्य तैल बेकार चला गया है। अब हम जाते हैं, और किसी के घर से हम तैल की गवेषणा कर लेंगे।
भट्टा ने कुछ क्षण के लिए मुनियों को रोकते हुए कहा-नहीं, महाराज! ऐसा नहीं हो सकता। वस्तु जब घर में है तब मैं उसकी भावना क्यों नहीं भाऊं? अवश्य आप कृपा करें। यह कहकर तत्काल भट्टा लक्षपाक तैल का घड़ा ले आई। मुनियों की आवश्यकतानुसार उसे बहरा दिया। ___मुनिद्वय ने जिज्ञासा के स्वरों में भट्टा से पूछा-बहिन! हम कब से तुम्हें देख रहे हैं? तुम्हारा बहुमूल्य तैल प्रचुरमात्रा में व्यर्थ चला गया। तुम्हारी दासी के हाथों तीन-तीन घड़ों का फूटना हुआ, फिर भी तुम्हारे चेहरे पर न कोई शिकन, न कोई क्रोध की रेखा, न कोई उलाहना और न कोई डांट-फटकार। हम केवल यही रहस्य जानना चाहते हैं कि क्या तुमने अपने मन को इतना अधिक साध लिया है?
भट्टा ने मुनियुगल की जिज्ञासा को समाहित करते हुए कहा-मुने! मैंने बचपन में क्रोध के कड़वे परिणामों को बहुत अधिक भोगा है। परिणामदर्शिता के कारण मेरे जीवन में यह बदलाव आया है। मैंने साधना के द्वारा जीवन को रूपान्तरित किया है, इसलिए आप मेरे में यह क्षमाशीलता देख रहे हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org