SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 312
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०२ सिन्दूरप्रकर रहे थे। तृष्णा की ज्वाला आकाश को छूने का प्रयत्न कर रही थी। मन में एक विकल्प आया कि मैं राजा से सौ मोहरें मांग लूं। तत्काल उसका विकल्प बदला कि सौ मोहरों से क्या होगा? जब राजा ने मुझे मांगने के लिए कहा है तब क्यों नहीं मैं जी भरकर मांगू? मुझे तो हजार, लाख, करोड़ स्वर्णमुद्राएं मांगनी चाहिए। नहीं, नहीं, इनसे भी क्या बनने वाला है? यदि मैं राजा के राज्य को मांग लूं तो मेरा एकछत्र साम्राज्य स्थापित हो जाएगा, जीवन में कभी दरिद्रता का मुंह देखना नहीं पड़ेगा। किन्तु मन में फिर भी शान्ति नहीं थी। कपिल उससे आगे कुछ सोचता कि सहसा विचारों में एक क्रांतिकारी मोड़ आया और कपिल की सारी कल्पनाएं चक्र की भांति पुनः एक बार स्थिर हो गई। उसने अपने आपको धिक्कारते हुए सोचा-अरे कपिल! तू चला तो था दो मासा सोना पाने और अब तू राजा का सारा राज्य हड़पने को तैयार हो गया। यह तेरी तृष्णा नहीं तो और क्या है? क्या तू राज्य को पाकर भी तृप्त और संतुष्ट हो जाएगा? यदि तुझे विशाल राज्य और प्रचुर वैभव मिल भी गया तो क्या तू सन्तोष, शान्ति और सुख का अनुभव कर लेगा? फिर दुनिया में ऐसी कौन-सी वस्तु है जो तुझे शान्ति और सुख दे सके? नहीं, नहीं, सन्तोष और शान्ति पदार्थजगत् में बिल्कुल नहीं है, वह तो अपने भीतर है। वह तृष्णा ही सारे दुःखों का मूल है, अतृप्ति का स्रोत है, ऐसा सोचकर कपिल अपने स्थान से उठा और रामा के सामने उपस्थित हो गया। राजा ने प्रतिप्रश्न करते हुए कपिल से पूछा-भूदेव ! क्या तूने सोच लिया है? तेरी जो भी इच्छा हो वह मांग ले। कपिल ने कहा-महाराज! मेरा मन समाहित हो गया है। मेरी आकांक्षा अनाकांक्षा में बदल गई है। अपरिग्रह की चिता ने मेरी मांग को जलाकर भस्म कर दिया है। अब मुझे कुछ नहीं चाहिए। मुझे जो पाना था वह सब मुझे मिल गया है। मेरा लोभ मेरे से पलायन कर मुझ से विलग हो गया है। मुझे तो अब सन्तोष और शान्ति का जीवन जीना है, यह कहकर कपिल के चरण साधना के पथ पर बढ़ गए। वह निर्ग्रन्थ-श्रमण बन गया और बिना कुछ मांगे ही वह उस सम्पदा से संपन्न हो गया, जहां दुनिया की सारी सम्पदाएं अकिंचित्कर होती हैं। वह आध्यात्मिक संपदाओं का स्वामी बन गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy