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________________ उद्बोधक कथाएं था कि रहस्य खुलने पर मेरे माथे पर एक कलंक लग जाएगा, लोग मुझे क्या कहेंगे? पर स्नेह का सूत्र इतना प्रगाढ़ होता है कि व्यक्ति उस समय करणीय-अकरणीय और उचित-अनुचित्त के भेद को भी भूल जाता है। वह दुर्ग को भेद सकता है, स्नेह के बन्धन को नहीं तोड़ सकता। कपिल के साथ भी ऐसा ही घटित हुआ। ___ज्यों-ज्यों दिन बीत रहे थे, दासी महोत्सव निकट आ रहा था। एक दिन दासी ने कपिल से कहा-स्वामिन्। दासी महोत्सव का समय सन्निकट है। मेरे पास महोत्सव मनाने के लिए फूटी कौड़ी भी नहीं है। मेरी सहेलियां मेरी निर्धनता पर हंस रही है। अब मेरी व्यथा मैं किसे सुनाऊं? आप नहीं सुनेगें तो कौन सुनेगा? कपिल का मन खिन्न हो उठा। अर्थ को जुटाना सहज-सरल कार्य नहीं था। समय पर यदि धन नहीं मिलता है तो महोत्सव को मनाने का आनन्द भी क्या था? वह उपाय को खोजने लगा। कपिला ने उसे एक उपाय सुझाते हुए कहा-पतिदेव! इसी नगर में धन नाम का एक सेठ रहता है। वह प्रातःकाल सबसे पहले बधाई देने वाले को दो मासा सोना देता है। जो व्यक्ति सबसे पहले उसके भवन में पहुंच जाता है वह सोना प्राप्त कर लेता है। अतः आप वहां जाएं, सेठजी को बधाई देकर दो मासा सोना प्राप्त कर लें। कपिल को यह सुझाव अच्छा लगा। दूसरे दिन वह घर से यह सोचकर निकल गया कि मेरे से पहले कोई वहां न पहुंच जाए। अन्धेरी रात। अनजानी राह। गति में त्वरा और सोना पाने की उत्कट अभिलाषा। उसे समय का भान ही नहीं रहा कि वह घर से कब निकला? आधी रात्रि में नगर-आरक्षकों ने उसे चोर समझ कर पकड़ लिया। प्रभात में उसे राजा के सामने प्रस्तुत किया। राजा के पूछने पर उसने सहजता-सरलता से सारा वृत्तान्त सुना दिया। राजा उसकी सत्यवादिता से बहुत प्रभावित हुआ। उसने कपिल से कहा-विप्र! मैं तुम्हारे पर प्रसन्न हूं। तुम जो मांगना चाहो वह मांग लो। कपिल यह सुनकर असमंजस में पड़ गया। वह अपने आप में निर्णय नहीं कर सका कि उसे क्या मांगना चाहिए। उसने राजा से निवेदन करते हुए कहा-प्रभो! यदि आपकी इतनी कृपा है तो मुझे कुछ सोचने का भी अवसर दीजिए। राजा ने उसकी बात मानते हुए कहा-तुम्हें जैसा सुख हो। कपिल राजा की आज्ञा से उसके बगीचे में चला गया। एक स्थान पर आंख मूंद कर बैठ गया। मन में अनेक प्रकार के संकल्प-विकल्प उभर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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