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________________ २९८ सिन्दूरप्रकर है। जब आवेश कम होता है तब उसे अपने किए हुए का पछतावा भी होता है और बुद्धि भी ठिकाने आती है । उस बहिन ने भी वैसा ही अनुभव किया। थकी मांदी बहिन को शीघ्र ही नींद ने आ घेरा। इधर बाबा के मन में भी अचानक एक संकल्प उभरा। पवित्रता विकृति में बदल गई। उसने मन ही मन सोचा - आज मैंने एक अपूर्व अवसर अपने हाथों गंवा दिया। अकेली स्त्री, सुनसान रात्रि और सुनसान मेरा आश्रम। मुझे कौन रोकने वाला था कि मैं उसके साथ काम- सुख भोगता। संसार क्या है, सब लोग जानते हैं । किन्तु मैं तो अभी भी उससे अनभिज्ञ बना हुआ हूं। बन्दर अदरक के स्वाद को क्या जाने ? उसके स्वाद को तो उपभोग करके ही जाना जा सकता है। मुझे भी उसका प्रयोग करके देखना चाहिए। खैर, अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है । बहिन मन्दिर में ही है। काम के संकल्प की प्रेरणा से बाबा मन्दिर में आया। उसने दरवाजा खटखटाया। बहिन की निद्रा टूट गई और साथ में वह सतर्क भी हो गई। उसने सोचा- हो न हो बाबा की नियति में बिगाड़ आया है । यदि मैंने कपाट खोल दिए तो यह अवश्य ही मेरे शील को भंग करेगा। उसने अर्गला लगाकर दरवाजों को और मजबूती से बन्द कर दिया। बाबा उसे बार-बार आवाज दे रहा है, पर वह बोलती नहीं है। बाबा ने उसे डराया धमकाया और प्रलोभन भी दिया, किन्तु वह अपनी सुरक्षा का पूरा बन्दोबस्त कर निश्चिन्त थी । जब बाबा ने देखा कि यह ऐसे वश में आने वाली नहीं है तो वह मन्दिर के ऊपर चढा और मन्दिर का गुम्बज तोड़ने लगा। यह देखकर बहिन और अधिक सतर्क हो गई । बाबा ने गुम्बज को तोड़कर छत में छेद कर लिया। अब उसने ऊपर से भीतर आने के लिए अपने पांव भीतर IST | यह देखकर बहिन ने झटपट कपाटों को खोला और मठ के बाहर निकल गई। इधर बाबाजी अधर में ही लटकते रह गए। न घर के रहे और न घाट के। वापस ऊपर जाना हाथ की बात नहीं थी और नीचे कूदना भी उसके वश में नहीं था, क्योंकि गुम्बज का मुंह छोटा था । शरीर लहुलूहान हो गया। सारी रात उसने लटकते-लटकते बिताई। प्रातःकाल भक्तलोग मन्दिर में आए। इधर-उधर बाबा को देखा, पर बाबाजी कहीं भी नजर नहीं आए। अचानक एक भक्त की दृष्टि मन्दिर के गुम्बज की ओर चली गई। उसने चिल्लाकर कहा - गजब हो गया । बाबा तो गुम्बज के मध्य लटके हुए हैं। भक्तलोग दौड़े। निसैनी लगाकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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