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उद्बोधक कथाएं शायद ब्रह्मचर्य को जितना सहज-सरल आचरणीय मानते हैं वह प्रयोगभूमि पर उतना सहज और साध्य नहीं है। उसे सिद्ध करने के लिए तपनाखपना पड़ता है। लगता है कि अभी तक आपने उसका अनुभव नहीं किया।
बाबा अपने मन्तव्य पर दृढ़ था और यह मानने को तैयार ही नहीं था कि ब्रह्मचर्य की साधना दुष्कर है। कथावाचन के पश्चात् सभा विसर्जित हुई। लोग अपने-अपने घर चले गए।
मठाधिपति बाबाजी भी अपनी समस्त दैनिक चर्याओं से निवृत्त होकर सोने की तैयारी कर रहा था। मुख्य द्वार को अर्गला लगाकर बन्द कर दिया गया। इतने में किसी आगन्तुक ने दरवाजे पर दस्तक दी। बाबा ने रोषारुण होते हुए मन ही मन सोचा-कम्बख्त! इस अन्धेरी रात में कौन आ धमका? उसने अपनी तेज आवाज में पूछा-कौन है? यहां क्यों आया है? ___ बाबा! मैं एक दुःखियारी अबला हूं। आपके आश्रम में रात्रिविश्राम चाहती हूं, इसलिए यहां आई हूं। जाना तो था मुझे कहीं और, किन्तु अन्धेरे में रास्ता भूल जाने के कारण नगर के बाहर की ओर चली आई। इधर प्रकाश की धुंधली-सी किरण दिखाई पड़ी। सोचा, यहां कोई मकान होना चाहिए। रात्रिविश्राम यहीं मिल जाएगा।
बहिन! यह तो साध-संन्यासियों का स्थान है। यहां भला औरतों का क्या काम? यह तो साधु-सन्तों के ही रहने के काम आता है? रात्रि में यह स्थान औरतों के लिए सर्वथा वर्जनीय है।
बाबा ! कुछ भी हो। मैं अकेली स्त्री हूं, निःसहाय हूं। मुसीबत में फंस गई हूं। रात का समय है। अन्यत्र जाऊं तो कहां जाऊं? एक रात का काम है। आप अपनी ओर से मेरे ठहरने की कोई व्यवस्था कर दें ताकि रातभर मैं यहां रह सकू और सुबह होने पर अपने घर चली जाऊं।
बाबा ने सोचा-अकेली बाई रात को कहां जाएगी? रात्रिविश्राम की ही तो बात है। दूसरे स्थान पर सो जाएगी।
बहिन के बहुत अधिक अनुनय-विनय करने पर बाबा का मन भी द्रवित हो गया। उसने मठ का मुख्य द्वार खोलते हुए बहिन से कहा-देखो, सामने मन्दिर है, वहां चली जाओ। द्वार बन्द कर सो जाना।
बाबा के कथनानुसार बहिन मन्दिर में चली गई। वह अपनी सास से लड़कर आई थी। आवेश में व्यक्ति कभी-कभी गलत निर्णय कर लेता
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