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उद्बोधक कथाएं
२९५ शिकायत करेगी। पता नहीं, महारानी मुझे क्या दंड दे? अपने बचाव के लिए वह पंडिता से क्षमा मांगने लगा और भविष्य में ऐसा नहीं करने का वचन दिया। ___ इसी प्रकार धाय पंडिता ने अन्य छहों द्वारों पर भी ऐसा ही किया और वहां पर तैनात प्रहरियों पर अपना प्रभुत्व जमा लिया। अब उसका आने-जाने का मार्ग निरापद हो गया।
एक दिन मैं (सुदर्शन) चतुर्दशी की रात्रि में श्मशान में पौषध कर रहा था। पंडिता वहां आई। वह बलिष्ठ थी। मैं निश्चल, मौन और धानमुद्रा में स्थित था। उसने मुझे एक बड़े वस्त्र से ढांका, अपने सिर पर उठाया और बिना किसी रोक-टोक और बाधा के मुझे महलों में पहुंचा दिया। महारानी अभया की एक इच्छा पूर्ण हो गई। अब उसकी दूसरी इच्छा थी येन केन प्रकारेण मुझे वश में करना। उसने मुझे कामसेवन के लिए बाध्य किया। उसने अनेक स्त्रीसुलभ चेष्टाओं हाव-भाव, कटाक्ष, हास्य-रुदन, क्रोध, राज्यलोभ आदि के द्वारा मुझे अपने प्रेमपाश में फंसाने का प्रयत्न किया, पर वह अपनी दुश्चेष्टाओं में सफल नहीं हो सकी। मैं भी आत्मचिन्तन की गहराइयों में डूबा हआ मिट्टी के पुतले के समान बना हुआ था। जब अभया ने देखा कि उसके सब प्रयत्न असफल हो रहे हैं, उसकी कामना पूरी होने वाली नहीं है और रात्रि भी व्यतीत होने वाली है तब उसने मुझे फंसाने के लिए स्त्रीचरित्र का नाटक खेला। उसने अपने वस्त्र फाड़ डाले, अलंकारों को इधर-उधर फेंक दिया, नाखून से अपने शरीर को नोंच डाला, केशराशी को बिखेर दिया और जोरों से चिल्लाने लगी-बचाओ, बचाओ, यह दुष्ट पुरुष मेरा शील भंग कर रहा है। पता नहीं यह राजमहल में कैसे घुस आया? द्वारपाल रानी की आवाज सुनकर अन्तःपुर की ओर दौड़े और उन्होंने मुझे दबोच लिया। मुझे कैद कर उन प्रहरियों ने आपश्री के सामने प्रस्तुत किया। आपने मुझे शूली पर चढ़ाने का आदेश दे दिया। यह है मेरी घटित घटना की दास्तान।
राजा धात्रीवाहन अपने अकृत्य पर क्षुब्ध बना हुआ था और साथ में वचनबद्ध भी था। वह महारानी के लिए कुछ सोचता, उसके पूर्व ही रानी ने यह जानकर कि “शूली सिंहासन बन गई है' लज्जा और भय के कारण महलों से कूदकर आत्महत्या कर ली। वह मरकर व्यन्तरी बनी। धाय पंडिता चम्पा नगर छोड़कर पाटलिपुत्र नगर में देवदत्ता वेश्या के यहां रहने लगी।
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