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________________ २९४ सिन्दूरप्रकर ठगी गई। सुदर्शन ने अपने आपको नपुंसक बताकर तेरे साथ विश्वासघात किया है। वह तो अत्यन्त सुन्दर चित्ताकर्षक पुरुष है। कपिला ने व्यंग्य कसते हुए अभया से कहा - खैर ! मैं तो छली गई, किन्तु आप तो देवअप्सरा हो । आप में यौवन की मादकता है। किसी को अपना बनाने की कला है। यदि आप सुदर्शन को अपना बना लें तब तो मैं मानूंगी कि आपने कुछ किया है, अन्यथा आपका अहंकार भी झूठा है। रानी अभया को कपिला के वचन का तीर लग गया। उसको अपने रूप-यौवन का अभिमान था। उस दिन से वह मन ही मन मुझे राजमहलों में बुलाने का उपाय खोजने लगी। इस कार्य के लिए उसने अपनी धायमाता पंडिता को नियुक्त किया। वह मेरे प्रत्येक क्रिया-कलापों पर ध्यान रखने लगी । उसे पता चला कि मैं चतुर्दशी का पौषध कर रात्रि के समय श्मशान में ध्यान करता हूं। पहरेदारों के होते हुए मुझे महलों में लाना भी सर्वथा असंभव और कठिन कार्य था, इसलिए उसने युक्तिपूर्वक सबसे पहले पहरेदारों पर अपना रौब जमाना अथवा उनको विश्वास में लेना चाहा । उसके लिए उसने एक षड्यन्त्र रचा। एक कुम्भकार को बुलाकर उसने मिट्टी की सात प्रतिमाएं बनवाईं। प्रतिदिन वह एक-एक प्रतिमा को कपड़े से ढंककर सिर पर उठाकर महलों में लाने लगी। प्रथम द्वार पर पहरा देने वाले प्रहरी ने उसे देखा और झल्लाते हुए पूछा कि कपड़ा लपेटा हुआ यह क्या है ? इससे तुझे क्या प्रयोजन ? महारानी ने मुझे जो आदेश दिया है मैं उसी की अनुपालना कर रही हूं, पंडिता ने तमतमाते हुए कहा । नहीं, मैं बिना दिखाए तुझे महलों में नहीं जाने दूंगा । महारानी ने कहा है- इस पर किसी अन्य पुरुष की छाया नहीं पड़नी चाहिए। मैं मध्यरात्रि में इसकी पूजा करती हूं। इसलिए इसे किसी को दिखाना सर्वथा वर्जित है, धायमाता ने जोर देकर कहा । चाहे कुछ भी हो बिना जांच-पड़ताल के तो तुम नहीं जा सकती, प्रहरी ने कहा । धाय पंडिता उस वस्तु को दिखाना नहीं चाहती थी और प्रहरी बिना देखे उसे आगे जाने की अनुमति नहीं दे रहा था। इस रस्साकसी धाय ने उस प्रतिमा को भूमि पर गिरा दिया। वह टूटकर चारों ओर बिखर गई । अब पहरेदार इस घटना से घबराया। उसने सोचा- महारानी को अवश्य ही इस बात का पता चलेगा। यह धाय भी महारानी से मेरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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