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________________ उद्बोधक कथाएं २९३ कार्यवश मैं उसके घर गया। उसकी पत्नी कपिला मेरे रूप-लावण्य पर मुग्ध हो गई। उसी दिन से वह मुझे अपने प्रेमजाल में फंसाने का प्रयत्न करने लगी। एक दिन कपिल भी किसी कार्यवश दूसरे गांव गया हुआ था। कपिला ने अवसर का लाभ उठाया। उसने अपनी दासी से मुझे कहलवाया कि आपके मित्र कपिल बहुत बीमार हैं। वे आपको बहुत याद कर रहे हैं। यदि आप अपने मित्र से मिल सकें तो उनके चित्त को अत्यधिक समाधि उत्पन्न होगी। मैं मित्रस्नेह के कारण कपिल के घर पहुंचा। देखा तो कपिल घर में नहीं था। मुझे लगा कि दाल में कुछ काला है। मुझे देखकर कपिला की खुशी मानो सात समन्दर पार कर गई। उसने मेरा आतिथ्यसत्कार किया। वह मुझे एक कमरे में ले गई, किवाड़ों को बन्द कर दिया और मुझ से कामवासना को शान्त करने की याचना करने लगी। मैं यह सब देखकर विस्मित हो गया। सोचा, आया तो था मित्र का कुशलक्षेम पूछने और कहां किसके फन्दे में फंस गया। अब यह पंछी इस पिंजरे से कैसे मुक्त हो सकता है, यह उपाय खोजने लगा। इसी बीच कपिला अपनी कामुकता के कारण इतनी अधिक काम से विह्वल हो गई कि वह मेरा आलिंगन करने पर उतारु हो गई। बार-बार मुझे उत्तेजित करने पर भी जब उसने मेरी निर्विकारता को देखा तब उसने पूछा-क्या आप पौरुषहीन हैं? उसका कहा हुआ वह वचन मेरे लिए अच्छा उपाय बन गया। मैंने साहस बटोरकर बुद्धिमत्ता से काम लिया। मैंने कुछ लज्जा को दर्शाते हुए और उदासीनभाव प्रकट करते हुए उससे कहा-हां, मैं तो पुरुषत्वहीन हूं, नपुंसक हूं। इस स्थिति में मैं आपकी इच्छा को कैसे पूरी कर पाऊंगा? इसलिए आप मुझे माफ करें और मुझे अपने घर जाने दें। कपिला ने मेरी बात को सत्य मानकर मुझे मुक्त कर दिया। कुछ दिनों बाद नगर में वसन्त-महोत्सव का आयोजन था। उस दिन नगर के प्रायः सभी संभ्रान्त लोग अपने-अपने परिवार के साथ आमोदप्रमोद मनाने के लिए उस महोत्सव में सम्मिलित हुए। स्वयं आप महाराजश्री भी महारानी अभया के साथ वहां आए। कपिला भी उस महोत्सव को देखने के लिए आई। मैं भी अपने चारों पुत्रों और पत्नी मनोरमा के साथ उस महोत्सव में गया। रानी अभया ने देवकुमार-तुल्य मेरे चारों पुत्रों को देखकर दासी से पूछा-ये पुत्र किसके हैं? ये पुत्र सेठ सुदर्शन के हैं-दासी ने कहा। कपिला पास में ही बैठी थी। उसने आपबीती सुनाते हुए रानी से कहा-'सुदर्शन तो नपुंसक हैं फिर ये पुत्र......'। अभया ने कहा-तू तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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