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________________ २९२ सिन्दूरप्रकर प्रतिबिम्बित शील का माहात्म्य उनको आह्लादित कर रहा था। सारे शहर में बिजली की भांति वह आकस्मिक और विस्मयकारी घटना फैल गई। जिसने भी इस घटना को सुना वह उसे देखने और जानने का लोभ संवरण नहीं कर सका। हजारों-हजारों कदम उस दृश्य को देखने के लिए श्मशानभूमि की ओर बढ गए। ___ जब यह संवाद राजमहलों तक पहुंचा तो राजा धात्रीवाहन भी सब कार्यों को छोड़कर उत्सुकतावश शीघ्रातिशीघ्र वहां आ पहुंचा। वहां का दृश्य देखकर वह गद्गद और विस्मयातिरेक से भर गया। उसने सेठ सुदर्शन के चरणों में प्रणाम करते हुए कहा-महाभाग! आप धन्य हैं, पुण्यात्मा हैं, महान् हैं। मैंने आपकी महानता का अंकन नहीं किया, इसलिए मैंने आप जैसे निर्दोष व्यक्ति को दोषी मानकर मृत्युदंड से दंडित किया। अब आप ही मेरा कल्याण और उद्धार कर सकते हैं। काश! कितना अच्छा होता कि यह पृथ्वी फट जाती और मैं उसमें समा जाता। हे महात्मन्! आप मुझे आज्ञा दें जिससे मेरा मार्ग प्रशस्त हो सके। सेठ सुदर्शन राजा के वचनों को सुनते हुए भी तटस्थ बने हुए थे। न तो उनके मन में राजा के प्रति किसी प्रकार का आक्रोश था और न अपनी प्रशंसा सुनकर गर्व। वे पहले भी समतासागर में निमज्जन कर परम आनन्द का अनुभव कर रहे थे और अब भी उनकी समरसता पूर्ववत् बनी हुई थी। सेठ ने राजा को शान्त करते हुए कहा-महाराजन्। इसमें आपका कोई दोष नहीं है, मेरे आत्मकृत कर्मों का दोष है। पूर्वभव में मैंने ऐसा कोई दोष सेवन किया था, जिसके परिणामस्वरूप मेरे पर यह मिथ्या-आरोप लगा और मुझे शूली की सजा मिली। पुनः राजा ने अपनी जिज्ञासा रखते हुए कहा-नगरसेठ! मैं अभी भी यथार्थ स्थिति से परिचित नहीं हूं। मैं अज्ञात को ज्ञात करना चाहता हूं। मैंने जो कुछ किया वह दूसरों के कहने-सुनने के आधार पर किया। अब आप मुझे यथार्थ घटना से अवगत कराने का कष्ट करें। सेठ सुदर्शन ने राजा को वचनबद्ध करते हुए कहा-यदि आप अपनी ओर से महारानी अभया को अभयदान दें तो मैं विस्तार से सारी बात बता सकता हूं, अन्यथा नहीं। राजा ने सेठजी की बात को स्वीकार करते हुए कहा-मैं वचनबद्ध हूं। अब आप उसे स्पष्ट करें। सेठ ने अथ से लेकर इति तक घटना का भेद खोलते हुए कहा-राजन्! इस चम्पा नगरी में मेरा एक मित्र कपिल है। उसकी पत्नी का नाम कपिला है। एक दिन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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