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उद्बोधक कथाएं
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मन में न तो रानी अभया के दोषारोपण से उद्वेलन है और न महाराज धात्रीवाहन द्वारा दिए गए मृत्युदंड का रोष है। जनता क्या कहेगी, इसकी भी उनको तनिक परवाह नहीं है। वे समताभाव में तल्लीन बने हुए आत्मस्थ हैं। उन्हें अटूट विश्वास है कि देव, गुरु और धर्म के प्रभाव से सब कुछ मंगल ही मंगल होगा। सचाई स्वयं प्रकट होकर सबके सामने प्रस्तुत होगी और उन पर लगी कालिमा की स्याही स्वतः धुलकर साफ हो जाएगी। वे मन ही मन अपने इष्ट-नवकार-महामंत्र को जपने में तल्लीन हैं। नगर की पूरी परिक्रमा कर वे वधिकों के साथ श्मशानभूमि में पहुंचते हैं। __ वधिकों ने सेठ सुदर्शन से कहा-महानुभाव! अब हम आपको शूली पर चढ़ाने वाले हैं। अब उसका समय भी आ रहा है। यदि आपकी कोई अन्तिम इच्छा हो तो आप उसे कहें। हम उसे पूरी करने का प्रयत्न करेंगे। सेठ ने कुछ गम्भीर होते हुए कहा-अब अनिच्छा ही मेरी सबसे बड़ी इच्छा है। उसे आप लोग पूरी कर सकें तो मेरे जीवन की सबसे बड़ी मुराद सिद्ध होगी। उसके पूरी होने पर मैं भी अपने आपको धन्यात्मा, पुण्यात्मा समझंगा। समाधान का समाधान क्या हो सकता था? जिसकी सब इच्छाएं नि:शेष हो जाती हैं वही दुनिया का महान् व्यक्ति हो सकता है और वही दूसरों को कुछ दे सकता है। सेठ सुदर्शन ने भी अन्तिम समय में उसी उदाहरण को प्रस्तुत कर दिया। वधिकों के पास अब शूली के सिवाय देने को क्या बचा था? नगराध्यक्ष की अनुमति पाकर वधिकों ने रोते-बिलखते हजारों दर्शकों के सामने सेठजी को शूली पर चढ़ा दिया। सेठजी आंखों को बन्द कर नमस्कार-महामंत्र के जाप में ध्यानस्थ हो गए। उस समय उन्हें शूली की चुभन का किचिंत् भी अनुभव नहीं हुआ। मात्र जो कुछ उन्हें अनुभव था वह थी वीतरागता और आत्मा की सन्निकटता।
हजारों आंखें इस क्रूर दृश्य को देखकर क्षणभर के लिए निमीलित हो गईं। अगले ही क्षण लोगों ने देखा कि सेठजी प्रसन्नमुद्रा में शूली की जगह सिंहासन पर विराजमान हैं। पास में वधिक मूर्च्छित होकर भूमि पर पड़े हुए हैं। सहसा जनता को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ कि यह कोई सपना है अथवा कोई चमत्कार! शूली को सिंहासन बना देखकर सारी जनता विस्मितमना होकर विस्फारित नेत्रों से उसे देख रही थी। रह-रहकर सबके मन में सेठ सुदर्शन की प्रशान्तमुद्रा और नयनों में
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