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________________ २९० सिन्दूरप्रकर किस बात की ? उन्होंने ऐसा कौन-सा बड़ा अपराध किया है जिससे उनको मृत्युदंड दिया जा रहा है। क्या कोई छोटी-मोटी सजा से उनका छुटकारा नहीं हो सकता था? कोई इस घटना को अंगदेश के अधिपति धात्रीवाहन की क्रूरता दर्शाकर राजा की न्यायप्रियता को कोस रहा था तो कोई इसे सेठजी के क्रूर कर्मों का विपाक बताकर कर्मवैचित्र्य पर अफसोस जता रहा था। कोई कह रहा था कि सेठजी क्या दूध से धुले व्यक्ति हैं, जिनसे कोई गलती ही न हो। ऐसे बड़े-बड़े व्यक्ति ही पर्दे के पीछे ऐसी भयंकर गलतियां करते हैं। वे पर्दाफाश होने पर ही पकड़े जाते हैं, अन्यथा कोई उनका बाल बांका भी नहीं कर सकता। धर्म की ओट में क्या कुछ नहीं चलता? कोई कह रहा था कि किसे कल्पना थी कि सेठजी भी ऐसा जघन्य अपराध कर देंगे ? कामदेव के सामने बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी अपनी साधना से भ्रष्ट हो जाते हैं तो फिर सेठ सुदर्शन की बात ही क्या? उन्होंने राजा धात्रीवाहन की महारानी अभया से बलात्कार करने का प्रयत्न किया है। अपनी कामवासना को शान्त करने के लिए उन्होंने राजमहल में घुसकर रानी अभया के सतीत्व को भंग करने का प्रपंच रचा है। क्या यही है सेठजी की शीलधर्मिता ! क्या यही है सेठजी की शीलनिष्ठा ! यह शीलभंग नहीं तो और क्या है ? ऐसे दुराचारी धर्मात्मा के लिए शूल के सिवाय और क्या दंड हो सकता था ? सारा बाजार विविध अफवाहों से गर्म था । जितनी सोच उतने ही कहने के प्रकार । जितने मस्तिष्क उतने ही सोचने के प्रकार | किसी को किसी के विचारों से बांधा नहीं जा सकता, किसी को किसी का मन्तव्य जताकर भी किसी की जबान को बन्द नहीं किया जा सकता। प्रत्येक व्यक्ति कहने- सोचने में स्वतंत्र है। जब तक सचाई प्रकट नहीं होती तब तक जनता-जनार्दन की भावनाओं को मोड़ना भी कठिन होता है। सूर्योदय की दो घटिका के पश्चात् चार वधिक सेठ सुदर्शन को पकड़कर श्मशान भूमि की ओर शूली पर चढाने के लिए ले जा रहे हैं। कोई व्यक्ति सेठजी को देखकर आंखों से आंसुओं की धार बहा रहा है तो कोई सेठजी के माथे पर कलंक का टीका मानकर उनकी दृढ़धर्मिता पर विश्वास कर रहा है। कहीं न्याय के प्रति हाहाकार है तो कहीं सेठजी के प्रति तिरस्कार है। सेठश्री सर्वथा भयमुक्त होकर वधिकों के साथ भीड़ भरे मार्ग से आगे बढ़ रहे हैं। उनके नेत्रयुगल जमीन में गढ़े हुए हैं। उनके For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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