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उद्बोधक कथाएं
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न की तो यह अग्नि ज्वाला जल के छींटे लगते ही शान्त हो जाए । यह कहकर रानी शिवादेवी ने अपनी अंजलि से जलकणों को चारों दिशाओं में फेंक दिया। देखते-देखते आग शान्त हो गई। सारे नगर में एक चमत्कार-सा घटित हो गया। जन-जन के मुख पर महासती शिवादेवी के सतीत्व की महिमा गूंजने लगी ।
एक बार भगवान महावीर उज्जयिनी नगरी में समवसृत हुए। हजारोंहजारों लोग भगवान के दर्शनार्थ-धर्मश्रवणार्थ उद्यान में गए। महाराज चंडप्रद्योत और महारानी शिवा- दोनों राजपरिवार के साथ वहां उपस्थित हुए। उन्होंने भगवान की धर्मदेशना सुनी। महारानी शिवा के मन में वैराग्य का अंकुर अंकुरित हुआ । उसने भगवान से दीक्षाग्रहण करने की प्रार्थना की। राजा चंडप्रद्योत भी उसकी बलवती भावना देखकर उसमें बाधक नहीं बना। महारानी शिवा ने प्रभुचरणों में संयमजीवन ग्रहण कर महासती चन्दना के नेतृत्व में सुखपूर्वक संयम का पालन किया और अन्त में वह केवलज्ञान प्राप्त कर सिद्ध-बुद्ध और मुक्त हो गई।
१४. शील का माहात्म्य
आज अंगदेश के प्रमुख नगर चम्पा में एक सन्नाटा छाया हुआ था । लोगों के चेहरे खिन्नता से गमगीन बने हुए थे। पूर्णिमा का दिन मानो अमावस्या की रात लेकर उगा था। शहर में सर्वत्र कुतूहल, जिज्ञासा और प्रश्नभरी निगाहें एक दूसरे को निहार रही थीं। एक ओर जनमानस में भय की रेखा व्याप्त थी तो दूसरी ओर लोगों में न्यायप्रियता और धर्मनिष्ठा के प्रति उंगली उठ रही थी। जहां देखो वहीं एक ही चर्चा सुनी जा रही थी कि आज सेठ सुदर्शन को शूली पर चढ़ाया जाएगा।
सेठ सुदर्शन ऋद्धि-सिद्धि संपन्न तथा रूप लावण्य की सम्पदा से युक्त थे। उनके घर में अपार वैभव और सुख-सुविधाओं के साधन थे । उनका जीवन अनेक सद्गुणों की सुवास से सुवासित था। वे बारहव्रती श्रावक थे। उनके पिताश्री का नाम ऋषभदास तथा मातुश्री का नाम जिनमती था। दोनों धार्मिकवृत्ति के व्यक्ति थे। सेठ सुदर्शन के जीवन में भी मातापिता के धार्मिक संस्कारों की प्रतिच्छाया थी, इसलिए उनकी धर्मप्रियता, सत्यवादिता और शीलनिष्ठा की खुशबू जन-जन में फैली हुई थी। वे महाराज द्वारा प्रदत्त नगरसेठ के सम्मान से भी सम्मानित थे।
सबको एक ही बात खटक रही थी कि सेठजी को शूली की सजा
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