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________________ २८८ सिन्दूरप्रकर मंत्री रानी की ओर देख-देखकर रो रहा था। राजा ने समझा कि शायद यह पीड़ा से रो रहा है। पर रानी समझ गई कि यह पश्चात्ताप की अग्नि में झुलसता हुआ आंसू बहा रहा है। ___मंत्री कुछ दिनों में स्वस्थ हुआ। एक दिन वह अन्तःपुर में जाकर महारानी के पैरों में पड़ गया। वह अपने कृत अपराध की क्षमा मांगने लगा और अपनी धृष्टता, दुष्टता और नीचता की भर्त्सना करने लगा। महारानी ने उसे सान्त्वना देते हुए कहा-भूल होना कोई बड़ी बात नहीं है, भूल का प्रायश्चित्त करना ही महानता है। वही व्यक्ति को सुधार सकता है। महारानी ने भी उसे गुप्त रहस्य प्रकट नहीं करने का वचन दे दिया। तब कहीं मंत्री आश्वस्त और विश्वस्त हुआ। एक बार उज्जयिनी नगरी में भीषण अग्नि का प्रकोप हुआ। हवा के प्रबल वेग से उसकी प्रचंड ज्वाला सारे नगर में फैल गई। धूं-धूं कर अनेक मकान, दुकानें तथा अन्यान्य वस्तुएं जलने लगीं। अग्नि बुझाने के लिए अनेक प्रयत्न किए गए, पर वे सब व्यर्थ थे। थोड़े ही समय में लाखोंलाखों का धन-माल जलकर स्वाहा हो गया। अग्नि बुझने का नाम ही नहीं ले रही थी। सारे नगर में कोलाहल और हाहाकार मचा हुआ था। लोग अपने-अपने घरों से भागकर सुरक्षित स्थानों में शरण ले रहे थे। राजा प्रजा की भलाई के लिए शोक-सागर में डूबा हुआ था। बुजुर्ग और अनुभवी लोगों की जबान पर एक ही स्वर था कि आज तक हमने ऐसी आग कभी नहीं देखी और न ही कभी सुनी। इससे लगता है यह कोई दैवी प्रकोप है। यह आग तो कोई महासती ही बुझा सकती है। __ अनुभवी लोगों के अनुभव के आधार पर सारे नगर में उद्घोषणा करा दी गई कि जो कोई नारी अपने आपको सती मानती है यदि वह यह कार्य करे, आग बुझाए तो जनता को इस दैवी प्रकोप से मुक्ति मिल सकती है। अनेक कुलवधुओं ने इस परीक्षा की घड़ी में अपने सतीत्व को सिद्ध करने का प्रयत्न किया, पर वे अपनी कसौटी में खरी नहीं उतर सकी। इधर महारानी शिवा ने भी अग्निकांड की उद्घोषणा सुनी। उसे अपने शीलधर्म पर पूरा विश्वास था। उसने अपने सतीत्व के परीक्षण के लिए उस समय को उपयुक्त समझा। वह राजमहल के ऊपर चढ़ी। उसने नमस्कार-महामंत्र का जाप किया और अपने अंजलिपुट में जल लेकर कहा-हे अग्निदेव! यदि मैं तन-मन से पवित्र हं, मेरा शील अखण्ड है और यदि मैंने स्वप्न में भी अपने पति के अतिरिक्त परपुरुष की वांछा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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