SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 296
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८६ सिन्दूरप्रकर चंडप्रद्योत के मन्त्री का नाम था-भूदेव। वह राजा का प्रीतिपात्र और चतुर मंत्री था। वह विद्वान् और राजनीतिज्ञ था तो चरित्र की दृष्टि से सर्वथा शून्य था। चंडप्रद्योत उसे अपना मंत्री ही नहीं मानता था, मित्र के रूप में भी देखता था। यही कारण था कि उसने राजा के विश्वास को जीत लिया। इस विश्वास के कारण वह बिना किसी रोक-टोक के अन्तःपुर में भी आ-जा सकता था। किसी के विश्वास को पाना एक बात है, किन्तु चरित्रनिष्ठ होना दूसरी बात है। वह हमेशा रानी शिवा को अपनी ललचाई आंखों से देखता था, रूपमाधुरी पाने को उत्सुक बना रहता था। वह रात-दिन यही सोचता रहता था कि वह दिन धन्य होगा जिस दिन मैं शिवा रानी को अपनी कामना की पूर्ति करते देखूगा। रानी शिवा भी मन्त्री के अनुरूप उसका आदर-सत्कार करती थी, वह महाराज के मित्र होने के नाते उसका यथोचित व्यवहार भी निभाती थी, पर महारानी को पता नहीं था कि उसके भीतर वासना का ज्वालामुखी सुलग रहा है। व्यक्ति के लिए अग्नि उतनी खतरनाक नहीं होती, खतरनाक होती है राख से ढंकी हुई अग्नि। आदमी उसी से धोखा खाता है, छला जाता है। एक दिन अवसर देखकर मंत्री भूदेव ने अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए महारानी की प्रियदासी को अपने आश्वासन में लिया। उसे प्रचुर धन दिया और उसके द्वारा अपना सन्देश भिजवाया-यह दासमंत्री महारानी के चरणों में न्यौछावर है। उसे आप अवश्य ही एक अवसर जरूर दें। दासी अन्तःपुर में रानी के पास पहुंची और मंत्री द्वारा भिजवाया हुआ सन्देश कहा। दासी के मुख से ऐसी ऊलजलूल बातें सुनकर महारानी शिवा ने उसे फटकार लगाते हुए कहा-दूति! तू यहां पंचायती करने आई है अथवा दूतिकार्य करने! खबरदार, जो तूने कभी ऐसी बात कही। भविष्य में इसका परिणाम अच्छा नहीं होगा। दासी ने कांपते हुए रानी के पैर पकड़े, अपनी भूल के लिए क्षमा मांगी। भूदेव की एक बार तो मनोगत आशा पर पानी फिर गया, पर विषयाकुल और कामी व्यक्ति को समझाना और उसे सन्मार्ग पर लाना दुष्कर कार्य होता है। वह अपनी लाचारी से कभी बाज नहीं आता। भूदेव तो पुनः ऐसे अवसर की ताक में था कि शिवा रानी उसके अधीनस्थ हो जाए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy