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उद्बोधक कथाएं
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मुनिवर को संबोधित करते हुए कहा - ओ मुने! तू मुझे भी शान्ति का मार्ग बता, अन्यथा यह नंगी तलवार तेरा अभिनन्दन करने में कभी नहीं हिचकिचाएगी। मुनि जंघाचारणलब्धिसंपन्न थे । वे संक्षेप में 'उपशम, विवेक और संवर'- इन तीन शब्दों का उच्चारण कर आकाश में उड़
गए।
चिलात इस दृश्य को देखते ही रह गया। वह वहां खड़ा खड़ा शब्दों के अर्थ की मीमांसा कर रहा था। बार-बार अर्थ की अनुप्रेक्षा करते हुए उसने समझ लिया कि मुनिवर के उपशमशब्द का अभिप्राय: है - क्रोध को शान्त करना। विवेक का तात्पर्य है- शरीर और आत्मा की भिन्नता का बोध करना और संवर का आशय है-मन और इन्द्रियों की निग्रह करना ।
जब तक मैं इन तत्त्वों से अपने आपको भावित नहीं करूंगा तब तक मैं शान्ति को प्राप्त नहीं कर सकता। ऐसा चिन्तन कर वह वहीं ध्यान में लीन हो गया। उसके पास रक्त से रंजित तलवार और सुंसमा का कटा हुआ सिर पड़ा था। रक्त के कारण अनेक वज्रमुखी चींटियां उसके इर्दगिर्द आने लगीं, उसके शरीर को नोंचने लगीं । चिलात ने उपशम के सूत्र को पकड़कर उन पर क्रोध नही किया । विवेक का आलम्बन लेकर वह आत्मा से भिन्न शरीर का बोध कर रहा था और संवर के द्वारा कष्टों में भी इन्द्रिय और मन का निग्रह कर समत्व की साधना में लीन था । चींटियों ने उसके शरीर को नोंच-नोंचकर चलनी कर दिया, फिर भी उसकी समता अखंडित रही । अन्त में वह समभावपूर्वक कष्टों को सहकर शरीर का उत्सर्ग कर देवलोक में उत्पन्न हुआ ।
१३. शील का चमत्कार
उज्जयिनी नाम की नगरी । वहां के प्रचण्ड शासक महाराज चंडप्रद्योत कुशलतापूर्वक राज्य का संचालन कर रहे थे। उनकी पटरानी का नाम शिवा था। जैसा उसका नाम था वैसा ही उसका गुण था। वह सबका कल्याण करने वाली थी । उसका जीवन बड़ा ही धार्मिक और पवित्र था। भगवान महावीर उसके आराध्यदेव थे। उसके नस-नस में भगवान के प्रति अगाध श्रद्धा रमी हुई थी। वह अपने धर्म एवं शील में पूर्णतया जागरूक और दृढ़ थी। सम्यक्दर्शन उसके जीवन का आधारस्तम्भ था। वह वैशाली के गणाध्यक्ष महाराज चेटक की चौथी पुत्री थी ।
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