________________
२८४
सिन्दूरप्रकर बलहीन और पराक्रमहीन-सा अनुभव करने लगा। अब वह आगे सुसमा का निर्वहन करने में असमर्थ था, इसलिए उसने श्रान्त, क्लान्त और परिक्लान्त होकर तीक्ष्णधार वाली तलवार से उसका सिर काट दिया। एकाएक खून की धारा बह चली। धड़ को उसने वहीं छोड़ दिया, केवल कटे हुए मस्तक को बालों से पकड़कर वह पुनः उसी अटवी में जा घुसा।
सेठ और उसके पुत्रों ने सुसमा का कटा हुआ धड़ देखा। उन्हें घोर दुःख हुआ। वे अरण्य में रुदन करने लगे, पर उनके रुदन को कौन सुनने वाला था? मृतशरीर उनके रुदन को अनुरागात्मक बंधन की कहानी मानकर मौन था। चारों ओर बिखरी हुई नीरवता अवश्य ही अपनी प्रतिध्वनि के मिष से उस रुदन को सुन रही थी। वे जिस उद्देश्य से चिलात का पीछा कर रहे थे अब उनका वह उद्देश्य भग्न हो चुका था। अब उसका पीछा करने का कोई सार नहीं था। पैर भी आगे बढ़ने से जवाब दे रहे थे। पुत्री का वहीं दाह-संस्कार कर वे पुनः राजगृह नगर लौट आए।
चिलात भागता हुआ अत्यन्त श्रान्त-क्लान्त हो गया था। उसके शरीर के रोम-रोम से स्वेद बह रहा था। उसके मन में विचारों की विविध कल्लोलें तरंगित हो रही थीं। वह सोच रहा था-यह क्या जीवन है? न सुख से खाना है और न सुख से सोना है। मन में हरदम अशान्ति बनी रहती है, चिन्ता और तनाव घुण की तरह खाए जा रहे हैं। मेरा यह चौर्यकर्म कितना निन्दनीय है, फिर भी मैं उसे छोड़ नहीं पा रहा हूं। मैं उसे छोडू या न छोडू, किन्तु चौर्यकर्म तो अवश्य ही मुझे एक दिन छोड देगा। मैं बेमौत किसी न किसी के हाथों मारा जाऊंगा। उस समय मेरी क्या दशा होगी, परलोक में मुझे कौनसा सुख मिलेगा? इन विचारों के साथ वह अपने गन्तव्यपथ की ओर बढ़ रहा था।
अचानक उसने एक को मुनि देखा। वे उस भयानक जंगल में एक वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ खड़े थे। उनके मुखमंडल पर अपूर्व शान्ति और दिव्यता झलक रही थी। सहसा चिलात के मुंह से निकल पड़ा-कहां तो ये उपशमधारी मुनि और कहां मैं ? वास्तविक जीवन तो इनका है। मुझे भी इनसे शान्ति का पाठ पढना चाहिए, ऐसा सोचकर चिलात के पैर वहीं ठिठक गए। वह कुछ क्षणों तक अपलकदृष्टि से मुनि को देखता रहा। मुनि ने ध्यान संपन्न किया। वह मुनि के कुछ नजदीक आया। उसके एक हाथ में सुंसमा का मुंड था तो दूसरे हाथ में थी नंगी तलवार। उसने
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org