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________________ उद्बोधक कथाएं २८३ आंसू थे और चेहरे पर उदासी । वह तत्काल नगररक्षकों के पास पहुंचा और उन्हें चोरी की घटना और सुसमा को ले जाने की बात कही। सेठ ने प्रार्थना के स्वरों में कहा- देवानुप्रियो ! मैं सुंसमा को चोरों से मुक्त कराना चाहता हूं। तुम लोग मेरा सहयोग करो। चोरों से जितना धन हाथ लगेगा वह सब तुम्हारा होगा और सुसमा को मैं रख लूंगा। धन के लोभ में आकर उन नगर - आरक्षकों ने उस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। वे सेठ की पुत्री को अपहर्ताओं से मुक्त कराने के उद्देश्य से तथा धन पाने की लालसा में वहां से रवाना हुए। वे शस्त्रास्त्रों से सज्जित थे । वे सिंहनाद करते हुए तथा क्षुब्ध महासागर की भांति धरती को शब्दायमान करते हुए आगे बढ़ रहे थे। आगे-आगे पांच सौ चोर भाग रहे थे और उनका पीछा करते हुए आरक्षक दौड़ रहे थे । अन्त में वे उस स्थान पर पहुंच गए जहां चोर सेनापति चिलात था। वे चिलात से युद्ध करने लगे। आरक्षकों ने सेनापति चिलात को क्षत-विक्षत कर उसे भगा दिया। उसके पांच सौ चोरों में से कुछ आरक्षकों के हाथ मारे गए, कुछेक क्षत-विक्षत होकर भाग गए और कुछ चोरों ने मरने की आशंका से भागते हुए विपुल धन-सुवर्ण को इधर-उधर फेंक दिया। नगर- आरक्षकों ने उस विपुल धन- सुवर्ण को बटोरा । वे उसे बटोर कर पुनः राजगृह नगर जाने को तैयार हो गए। उनको सेठजी का धन मिल चुका था, इसलिए चिलात तस्कर को पकड़ने और सुंसमा को उसके चंगुल से मुक्त कराने का उनका उत्साह भी ठंडा पड़ गया। सेठ धन ने उनको बहुत प्रेरित किया, कर्तव्य का बोध भी कराया, पर वे आगे बढ़ने के लिए तैयार ही नहीं हुए। आरक्षकों को अपने स्वार्थ की पूर्ति से मतलब था । वह पूरा होने पर वे धन लेकर राजगृह लौट गए। उधर चिलात अपनी चोर सेना को क्षत-विक्षत होते देखकर और पलायन करते जानकर भयभीत हो गया । वह एकाकी ही सुंसमा को कंधे पर उठाकर प्रलम्ब मार्ग वाली अटवी में जा घुसा। अकेला धन सार्थवाह और उसके पांच पुत्र तब भी तस्कर सेनापति का पीछा कर रहे थे। वे. अटवी में चिलात के पदचिह्नों का अनुगमन करते हुए और उसे दुष्ट-दुष्ट पुकारते हुए आगे बढ़ रहे थे। चिलात ने दौड़ने में कोई कमी नहीं रखी। उसने जान लिया कि धन सार्थवाह और उसके पुत्र अब भी मेरा पीछा कर रहे हैं । अन्त में वह दौड़ते-दौड़ते बहुत थक गया। वह अपने आपको शक्तिहीन, वीर्यहीन, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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