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________________ २८२ सिन्दूरकर अपने तस्कर साथियों को निर्देश देते हुए कहा- बंधुओ ! आज हमें राजगृह नगर जाना है। वहां के धनाढ्य सेठ धन के यहां चोरी करनी है। उसके सुसमा नाम की एक पुत्री है। वह दिव्यरूपा और शरीर में सुकोमल है। उसके प्रति मेरा अनुराग है। इसलिए सेठजी के यहां अपहृत किया हुआ कनक, रत्न, मणि और मौक्तिक आदि विपुल धन तुम्हारा होगा और उनकी पुत्री सुसमा मेरी होगी। चोरों ने उसकी शर्त को स्वीकार कर लिया। उसके निर्देशानुसार सभी चोर अपने-अपने शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित और कवचित हो गए। वे अपने स्वामी का अनुगमन करते हुए राजगृह के पास वाले जंगल में पहुंच गए। वहां उन्होंने दिन का विश्राम किया । अर्धरात्रि बीत जाने पर चोरों ने चोरी के लिए वहां से प्रस्थान किया। सारा नगर निद्रादेवी की गोद में सो रहा था। तस्कर चिलात अपने पांच सौ तस्कर अनुयायियों के साथ राजगृह नगर के पूर्ववर्ती द्वार पर आया। उसके पास तालोद्घाटिनी विद्या थी । उसने विद्या का स्मरण कर कपाटों पर मंत्रित जल छिड़का । विद्या के प्रभाव से द्वार के कपाट ऐसे खुल गए कि मानो किसी ने उनको बन्द ही नहीं किया। वह राजगृह नगर में प्रविष्ट हुआ और चलते-चलते धन सार्थवाह के घर के समीप पहुंच गया। उसने वहां अपने मंत्र देवता का आह्वान करते हुए कहा - हे देव! मैं धन सार्थवाह के यहां चोरी करने की इच्छा से अपने साथी चोरों के साथ सिंहगुफा से आया हूं। मुझे अपने इस कार्य में सफलता मिले, यह कहकर उसने धन सार्थवाह के घर का द्वार खोला। धन सार्थवाह सोया हुआ था । एकाएक उसकी नींद खुली। उसने पांच सौ चोरों के साथ सेनापति चिलात को देखा । बहुसंख्यक चोरों के सामने धन और उसके पुत्रों का क्या जोर चल सकता था। वे सब निःसहाय थे। चोरों को देखकर वे सभी भयाक्रान्त, त्रसित, उद्विग्न होकर एकान्त में चले गए। चोरों ने सेठजी के घर विपुल धन-माल बटोरा, उसकी गठरियां बांधी और सुंसमा पुत्री का अपहरण कर वे सभी पल्ली की ओर प्रस्थान कर गए। चोरों के प्रस्थान करने के बाद धन सार्थवाह ने अपने घर को सम्भाला। धन की हानि के साथ-साथ सुसमा को अपहृत हुआ जानकर सेठ के मन पर वज्राघात-सा हो गया। उसे धन चुराए जाने की उतनी चिन्ता नहीं थी जितनी कि सुसमा के अपहरण की । उसकी आंखों में For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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