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उद्बोधक कथाएं
२८१ सेठ ने अवज्ञापूर्वक उसको अपने घर से बाहर निकाल दिया।
सेठ के घर से निकलने पर चिलातपुत्र और अधिक स्वेच्छाचारी हो गया। वह सब जगह बेरोक-टोक घूमने लगा। उसमें मद्य, मांस, द्यूत, परस्त्रीगमन और चौर्यकर्म आदि अनेक दुर्व्यसन घर कर गए।
उस राजगृह नगर के आस-पास आग्नेय कोन में सिंहगुफा नाम की एक चोरपल्ली थी। उसमें विजय नाम का चोर सेनापति रहता था। वह बड़ा ही अधार्मिक, कर, साहसिक और महाक्रोधी था। वह अपने तस्कर अनुयायियों को सदा ‘मारो-छेदो और काटो' आदि की प्रेरणा से प्रेरित करता रहता था। उसका प्रतिदिन का कार्य था-नगरघात करना, गायों को चुराना, मनुष्यों को लूटकर बन्दी बनाना, पथिकों को मारना, सेंध लगाकर चोरी करना, घरवासियों को बेघर करना और सामान्य जनता को उत्पीड़ित करना। इस प्रकार वह चोर अपने कारनामों से नगर-नगर और गांव-गांव में प्रसिद्ध हो गया था। लोग उसके नाम से भयभीत और आतंकित थे। __एक दिन वह चिलात भी घूमता-फिरता हुआ उस चोरपल्ली में जा पहुंचा। चोर सेनापति से उसका परिचय हुआ। उसने 'विजय' तस्कर की अधीनता स्वीकार करली। धीरे-धीरे वह चिलात भी वहां रहकर चौर्यकर्म में कुशल हो गया। सेनापति विजय तस्कर ने उसे सब प्रकार से योग्य जानकर उसे अनेक प्रकार की चोरविद्याएं, चोरमंत्र तथा चोरी के रहस्य सिखा दिए।
कुछ समय के पश्चात् चोर सेनापति विजय का देहावसान हो गया। उसके अधीन रहने वाले पांच सौ चोरों ने मिलकर चिलात तस्कर को चौर्यकर्म में अग्रगण्य जानकर उसका चोरसेनापति के रूप में अभिषेक कर दिया। अब वह चोरों का सेनापति बन गया। वह भी अपने स्वामी की भांति अधर्म का अनुगामी और महाक्रूरकर्मा था। वह अपने अधीन रहने वाले पांच सौ चोरों का अधिपतित्व करता हुआ उनकी सुरक्षा का दायित्व निभा रहा था।
एक दिन अचानक चिलात को बचपन की स्मृतियां ताजी हो आईं। उसका सुंसमा के प्रति रहा हुआ अनुराग जाग्रत हो गया। रह-रह कर उसके मन में सुंसमा को क्रीडा कराने, खिलाने तथा उसका मनोरंजन कराने की बातें याद आने लगीं। अब भी उसके प्रति उसका मोह और आसक्ति का बन्धन दूर नहीं हुआ था। अवसर देखकर एक दिन उसने For Private & Personal Use Only
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