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________________ २८० सिन्दूरप्रकर नाम था सुसमा। पुत्री देखने में सुन्दर और फूल की तरह सुकोमल थी। वह भाइयों की छोटी लाडली बहिन और माता-पिता की इकलौती पुत्री थी, इसलिए परिवार के सभी सदस्यों का उस पर अत्यधिक आकर्षण और स्नेह बना हुआ था। धन सार्थवाह के पास एक दासपुत्र भी रहता था। उसका नाम था चिलात। वह शरीर में मांसल और हृष्ट-पुष्ट था। उसकी सभी इन्द्रियां स्वस्थ थीं। वह बच्चों को क्रीड़ा कराने में कुशल था। धन सेठ ने अपनी पुत्री सुंसमा को क्रीडा कराने तथा उसे यत्र-तत्र घुमाने का दायित्व उस दासपुत्र को सौंप रखा था। वह अन्य शिशुओं के साथ भी खेला करता था। वह सुंसमा को गोद में लेकर उसे अनेक क्रियाकलापों से खुश रखने का प्रयत्न करता था। कभी वह उसे रमाता तो कभी लडाता। कभी रोती हुई को हंसाता तो कभी हाथ में खिलौना देकर उसका मनोरंजन करता था। कभी वह बच्चे के साथ बच्चा बन जाता तो कभी उसी के साथ खेलने भी लग जाता। इस प्रकार उसके पास मनोरंजन के विविध उपाय थे। जहां चिलात बच्चों के मन को बहलाने की कला में निष्णात था वहीं वह चोरी करने और बच्चों को डराने-धमकाने में भी कम नहीं था। वह अवसर देखकर किसी के अलंकार, किसी की कर्पदिकाएं, किसी के खिलौने तथा किसी के वस्त्र आदि भी चुरा लेता था। कभी वह किसी को डराता-धमकाता तो कभी वह किसी को पीट भी देता था। उसके इस दुर्व्यवहार से सभी बच्चे तंग आ चुके थे। वे आंखों में आंसू भरते हुए कभी रोते तो कभी चिल्लाते थे। ____ कुछ दिन बीत जाने पर बच्चों ने अपने-अपने मां-बाप से चिलातपुत्र की शिकायत कर दी। एक दिन उन बच्चों के माता-पिता एकत्रित होकर सेठ धन के पास आए। वे क्रोध से तमतमाते हुए उपालम्भ के स्वर में बोले-श्रेष्ठिवर! आपका दासपुत्र हमारे बच्चों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करता। आप उसे समझाएं। हमारे बच्चे कब तक उसके दुर्व्यवहार को सहते रहेंगे? __धन सार्थवाह ने भी उनकी बात पर ध्यान देकर चिलात को ऐसा करने से रोका, उसे कड़ी डांट-फटकार लगाई। कुछ दिन तो चिलात शान्त रहा, उसके बाद फिर वही घोड़ा और वही मैदान। वह अपनी हरकतों से बाज नहीं आया, पुनः पुनः वही गलतियां करने लगा। अन्ततः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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