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श्लोक २६-२९ अर्थ
जो मनुष्य प्राणियों की हिंसा से धर्म की इच्छा करता है वह अग्नि से कमलवन की, सूर्य के अस्तंगत होने पर दिवस की, सर्प के मुख से अमृत की, विवाद से साधुवाद की, अजीर्ण से रोगोपशमन की और कालकूट विष से जीवित-प्राणधारण करने की अभिलाषा करता है।
आयुर्दीर्घतरं वपुर्वरतरं गोत्रं गरीयस्तरं,
वित्तं भूरितरं बलं बहुतरं स्वामित्वमुच्चस्तरम् । आरोग्यं विगतान्तरं त्रिजगति श्लाघ्यत्वमल्पेतरं,
संसाराम्बुनिधिं करोति सुतरं चेतः कृपार्टान्तरम् ।।२८।। अन्वयःकृपान्तिरं चेतः आयुः दीर्घतरम् , वपुः वरतरम् , गोत्रं गरीयस्तरम् , वित्तं भूरितरम्, बलं बहुतरम् , स्वामित्वम् उच्चस्तरम् , आरोग्यं विगतान्तरम् , त्रिजगति श्लाघ्यत्वम् अल्पेतरम् , संसारम्बुनिधिं सुतरं करोति । अर्थ___ करुणा से भीतर तक भीगा हुआ चित्त (अन्तःकरण) मनुष्य की आयु को प्रलम्ब, शरीर को अतिसुन्दर, कुल अथवा नाम को गुरुतर, धन को अतिप्रचुर, बल को वृद्धिंगत, स्वामित्व को उत्कृष्ट, आरोग्य को अविच्छिन्न, तीनों लोकों में श्लाघ्यता को अत्यधिक और संसाररूपी समुद्र को सुतर-सुखपूर्वक तैरने योग्य करता है। ६. सत्यप्रकरणम् विश्वासायतनं विपत्तिदलनं देवैः कृताराधनं,
मुक्तेः पथ्यदनं जलाग्निशमनं व्याघ्रोरगस्तम्भनम् । श्रेयःसंवननं समृद्धिजननं सौजन्यसंजीवनं,
कीर्तेः केलिवनं प्रभावभवनं सत्यं वचः पावनम् ।।२९।। अन्वयःसत्यं वचः पावनम् (अस्ति), (तथैव) विश्वासायतनम्, विपत्तिदलनम्, देवैः कृताराधनम्, मुक्तेः पथ्यदनम्, जलाग्निशमनम्, व्याघ्रोरगस्तम्भनम्, श्रेयःसंवननम्, समृद्धिजननम्, सौजन्यसंजीवनम्, कीर्तेः केलिवनम्, प्रभावभवनम् । अर्थ
सत्यवचन पावन है। उसी प्रकार वह विश्वास का आयतन-स्थान, आपदाओं का नाश करने वाला, देवों द्वारा उपासनीय, मुक्तिपथ का पाथेय, जल और अग्नि के उपद्रव को शान्त करने वाला, व्याघ्र और सर्प का स्तम्भन करने वाला, कल्याण अथवा १-२. शार्दूलविक्रीडितवृत्त ।
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