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________________ १८ सिन्दूरप्रकर श्रियां संकेतदूती, त्रिदिवौकसः निःश्रेणिः, मुक्तेः प्रियसखी, कुगत्यर्गला कृपैव सत्त्वेषु क्रियतां, परैरशेषैः क्लेशैः भवतु। अर्थकरुणा पुण्य की क्रीडास्थली है, पापरूप रजों को समेटने के लिए अन्धड़ के समान है, भव-समुद्र को तैरने के लिए नौका है, कष्टरूप अग्नि का उपशमन करने के लिए बरसने वाले मेघ की घटा के तुल्य है, संपदाओं से मिलाने वाली दूती है, स्वर्गगृह के आरोहण के लिए सोपानपंक्ति है, मुक्ति की प्रियसहेली है और कुगति को रोकने के लिए आगल के समान है उस करुणा का ही तुम प्राणियों पर आचरण करो। अन्य सभी कायक्लेशों (शरीर को कष्ट देने वाले उपक्रमों) से क्या प्रयोजन? 'यदि ग्रावा तोये तरति तरणिर्यादयति, प्रतीच्यां सप्ताचियदि भजति शैत्यं कथमपि । यदि क्षमापीठं स्यादुपरि सकलस्याऽपि जगतः, प्रसूते सत्त्वानां तदपि न वधः क्वापि सुकृतम् ।।२६।। अन्वयःयदि ग्रावा तोये तरति । यदि तरणिः प्रतीच्याम् उदयति । यदि सप्तार्चिः शैत्यं भजति । यदि क्ष्मापीठं सकलस्यापि जगतः उपरि स्यात् तदपि सत्त्वानां वधः कथमपि क्वापि सुकृतं न प्रसूते । अर्थ__ यदि पाषाण पानी पर तैरने लग जाए, यदि सूर्य पश्चिम में उदित होने लग जाए, यदि अग्नि शीतल हो जाए, यदि पृथ्वीतल समस्त जगत के ऊपर भी आ जाए तो भी प्राणियों की हिंसा किसी भी प्रकार से कहीं भी सुकृत-पुण्य को उत्पन्न नहीं कर सकती। २स कमलवनमग्नेर्वासरं भास्वदस्ता दमृतमुरगवक्त्रात् साधुवादं विवादात् । रुगपगममजीर्णाज्जीवितं कालकूटा दभिलषति वधाद्यः प्राणिनां धर्ममिच्छेत् ।।२७।। अन्वयःयःप्राणिनां वधात् धर्ममिच्छेत् सः अग्नेः (सकाशात् ) कमलवनम्, भास्वदस्तात् वासरम् , उरगवक्त्रात् अमृतम् , विवादात् साधुवादम् , अजीर्णात् रुगपगमम्, कालकूटात् जीवितमभिलषति। १. शिखरिणीवृत्त। २. मालिनीवृत्त । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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