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श्लोक २२-२५ स्वःश्रीः तं मुहुः परिरब्धुमिच्छति, मुक्ति: तमालोकते । अर्थ__ कल्याण में रुचि रखने वाला जो मनुष्य गुणसमूह के क्रीडागृह के समान संघ की सेवा-उपासना करता है, उसके लक्ष्मी स्वयं शीघ्रता से निकट आती है, कीर्ति उसका आलिंगन करती है, प्रीति उसकी सेवा करती है, बुद्धि उत्कंठित होकर उसको प्राप्त करने का प्रयत्न करती है, स्वर्गलक्ष्मी पुनःपुनः उससे आलिंगन-मिलना चाहती है और मुक्ति उसका अवलोकन करती है, प्राप्त हो जाती है।
यद्भक्तेः फलमर्हदादिपदवीमुख्यं कृषः सस्यवत् ,
चक्रित्वं त्रिदशेन्द्रतादि तृणवत् प्रासङ्गिकं गीयते। शक्तिं यन्महिमस्तुतौ न दधते वाचोऽपि वाचस्पतेः,
____संघः सोऽघहरः पुनात् चरणन्यासैः सतां मन्दिरम् ।।२४।।
अन्वयःयद्भक्तेः अर्हदादिपदवीमुख्यं फलं कृषेः सस्यवत् । चक्रित्वं त्रिदशेन्द्रतादि प्रासङ्गिकं (फल) तृणवत् गीयते। यन्महिमस्तुतौ वाचस्पतेः वाचोऽपि शक्तिं न दधते सः अघहरः संघः चरणन्यासैः सतां मन्दिरं पुनातु। अर्थ
धान्य की उत्पत्ति जैसे कृषि का मुख्य फल है और प्रासंगिक फल है-तृण आदि का मिलना, वैसे ही संघ की भक्ति का मुख्य फल है-अर्हत् आदि पदवी की प्राप्ति
और उसका प्रासंगिक फल कहा जाता है-चक्रवर्तित्व तथा इन्द्रत्व आदि का प्राप्त होना। जिस संघ की महिमा का वर्णन करने में बृहस्पति (देवताओं के आचार्य) की वाणी भी समर्थ नहीं है वह पापहारी संघ अपने चरणन्यास से सत्पुरुषों के निकेतन को पवित्र करे। ५. अहिंसाप्रकरणम् क्रीडाभूः सुकृतस्य दुष्कृतरजःसंहारवात्या भवो
दन्वन्नौर्व्यसनाग्निमेघपटली संकेतदूती श्रियाम् । निःश्रेणिस्त्रिदिवौकसः प्रियसखी मुक्तेः कुगत्यर्गला,
सत्त्वेषु क्रियतां कृपैव भवतु क्लेशैरशेषैः परैः।।२५।। अन्वयःसुकृतस्य क्रीडाभूः, दुष्कृतरजःसंहारवात्या, भवोदन्वन् नौः, व्यसनाग्निमेघपटली,
१-२. शार्दूलविक्रीडितवृत्त।
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