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________________ सिन्दूरप्रकर अर्थ जिस प्रकार रोहणपर्वत रत्नों का, आकाश तारों का, स्वर्ग कल्पवृक्षों का, सरोवर कमलों का, समुद्र चन्द्रमा की भांति निर्मल जल का स्थान है उसी प्रकार साधुसाध्वी-श्रावक-श्राविकारूप यह चतुर्विध संघ (ज्ञानदर्शनचारित्रादि) गुणों का स्थान है। ऐसा चिन्तन कर कल्याणस्वरूप संघ की पूजाविधि-भक्ति उपासना करनी चाहिए। यः संसारनिरासलालसमतिर्मुक्त्यर्थमुत्तिष्ठते, यं तीर्थं कथयन्ति पावनतया येनास्ति नान्यः समः। यस्मै तीर्थपतिर्नमस्यति सतां यस्माच्छुभं जायते, स्फूत्तिर्यस्य परा वसन्ति च गुणा यस्मिन् स संघोऽर्थ्यताम् ।।२२।। अन्वयःयः (संघः) संसारनिरासलालसमतिः (सन् ) मुक्त्यर्थम् उत्तिष्ठते । (पुनः) यं (संघ) पावनतया तीर्थं कथयन्ति । येन (संघेन) समः अन्यः (कोऽपि) नास्ति । (एव) यस्मै (संघाय) तीर्थपतिः (स्वयं) नमस्यति । यस्मात् (संघात् ) सतां शुभं जायते। यस्य (संघस्य) स्फूर्तिः परा (वर्तते)। यस्मिन् (संघे) गुणाश्च वसन्ति। सः संघः अर्च्यताम्। अर्थ भव्यप्राणियो! तुम उस संघ की अर्चा-पूजा करो जो संसार-त्याग की उत्सुकमति को उत्पन्न कर मुक्ति की साधना करने वालों के लिए सक्रिय होता है, जो पवित्रता के कारण तीर्थ कहलाता है, जिसके समान अन्य कोई भी (तीर्थ) नहीं है। (स्वयं) तीर्थकर जिसे नमस्कार करते हैं, जिससे सज्जन व्यक्तियों का कल्याण होता है, जिसकी महिमा उत्कृष्ट है और जिसमें अनेक गुणों को विद्यमानता है। 'लक्ष्मीस्तं स्वयमभ्युपैति रभसा कीर्तिस्तमालिङ्गति, प्रीतिस्तं भजते मतिः प्रयतते तं लब्धमुत्कण्ठया। स्वःश्रीस्तं परिरब्धुमिच्छति मुहुर्मुक्तिस्तमालोकते, यः संघ गुणराशिकेलिसदनं श्रेयोरुचिः सेवते ।।२३।। अन्वयःयः श्रेयोरुचिः गुणराशिकेलिसदनं संघ सेवते लक्ष्मीः तं रभसा स्वयमभ्युपैति, कीर्तिः तम् आलिङ्गति, प्रीतिः तं भजते, मतिः उत्कण्ठया तं लब्धं प्रयतते, १. शार्दूलविक्रीडितवृत्त। २. संसारस्य निरासे-निराकरणे त्यागे लालसा-इच्छा यस्याः सा ईदृशी मतिर्यस्य सः। ३. स्फूर्तिः महिमेत्यर्थः। ४. शार्दूलविक्रीडितवृत्त । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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