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________________ श्लोक १८-२१ शत्रु के समान, पुष्पमाला को सर्प के समान, चिन्तामणि रत्त को ढेले के समान और चन्द्रमा की चान्दनी को ग्रीष्मऋतु के आतप के समान मानता है। धर्म जागरयत्यघं विघटयत्युत्थापयत्युत्पथं, भिन्ते मत्सरमुच्छिनत्ति कुनयं मनाति मिथ्यामतिम् । वैराग्यं वितनोति पुष्यति कृपां मुष्णाति तृष्णां च यत्, तज्जैनं मतमर्चति प्रथयति ध्यायत्यधीते कृती ।।२०।। अन्वयःकृती यत् जैनं मतम् अर्चति, प्रथयति, ध्यायति, अधीते (सः) तत् धर्मं जागरयति, अघं विघटयति, उत्पथम् उत्थापयति, मत्सरं भिन्ते, कुनयम् उच्छिनत्ति, मिथ्यामतिं मनाति, वैराग्यं वितनोति, कृपां पुष्यति, तृष्णां च मुष्णाति। अर्थ जो विद्वान् जिस जिनशासन की अर्चना करता है, विस्तार करता है, उसके स्वरूप का चिन्तन करता है और उसका अध्ययन करता है वह उस (जिनशासन) धर्म का जागरण-उद्दीपन करता है, पाप का विघटन-नाश करता है, उन्मार्ग का उत्थापन-निवारण करता है, गुणिजनों के प्रति होने वाले द्वेषभाव को छिन्न करता है, कुनय-अनीति का उच्छेद करता है, कुमति को मथ डालता है, वैराग्य को बढ़ाता है, दया का पोषण करता है और तृष्णा-लोभ का निराकरण करता है। ४. संघप्रकरणम् रत्नानामिव रोहणक्षितिधरः खं तारकाणामिव, स्वर्गः कल्पमहीरुहामिव सरः पङ्केरुहाणामिव । पाथोधिः पयसामिवेन्दुमहसां स्थानं गुणानामसा वित्यालोच्य विरच्यतां भगवतः संघस्य पूजाविधिः।।२१।। अन्वयः(यथा) रोहणक्षितिधरः रत्नानामित्र, खं तारकाणामिव, स्वर्गः कल्पमहीरुहामिव, सरः पङ्केरुहाणामिव, पाथोधिः इन्दुमहसां पयसामिव (तथा) असौ (संघः) गुणानां स्थानमित्यालोच्य भगवतः संघस्य पूजाविधिः विरच्यताम्। १-२. शार्दूलविक्रीडितवृत्त। ३. 'शशीव महसाम्'– ऐसा पाठ मानने पर इसका अर्थ होगा-जैसे चन्द्रमा तेज का स्थान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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