SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४ सिन्दूरप्रकर नहीं कर पाते। इसी प्रकार न वे हित और अहित को भी सम्यक् प्रकार से देख पाते हैं, न जान पाते हैं। 'मानुष्यं विफलं वदन्ति हृदयं व्यर्थं वृथा श्रोत्रयो निर्माणं गुणदोषभेदकलनां तेषामसंभाविनीम्। दुर्वारं नरकान्धकूपपतनं मुक्तिं बुधा दुर्लभां, सार्वज्ञः समयो दयारसमयो येषां न कर्णातिथिः।।१८।। अन्वयःसार्वज्ञः दयारसमयः समयः येषां कर्णातिथिः न (जातः) बुधास्तेषां मानुष्यं विफलं वदन्ति (पुनश्च ते तेषां) हृदयं व्यर्थम् , श्रोत्रयोर्निर्माणं वृथा, गुणदोषभेदकलनाम् असंभाविनीम्, नरकान्धकूपपतनं दुर्वार, मुक्तिं दुर्लभां वदन्ति । अर्थ जिन्होंने सर्वज्ञ के करुणारस से परिपूर्ण सिद्धान्त को नहीं सुना है उनका मनुष्यजन्म निष्फल है, उनका चित्त (करुणाविहीन होने के कारण) व्यर्थ है, उनके कानों का निर्माण निष्प्रयोजन है, गुण और दोष का विवेक करना उनके द्वारा अशक्य है, उनके नरकरूपी अन्धकूप में पतन को रोकना कठिन है, उनकी मुक्ति दुर्लभ है, ऐसा विज्ञपुरुष कहते हैं। पीयूषं विषवज्जलं ज्वलनवत्तेजस्तमस्तोमव न्मित्रं शात्रववत्स्रजं भुजगवच्चिन्तामणिं लोष्ठवत् । ज्योत्स्नां ग्रीष्मजघर्मवत् स मनुते कारुण्यपण्यापणं, जैनेन्द्रं मतमन्यदर्शनसमं यो दुर्मतिर्मन्यते ।।१९।। अन्वयःयो दुर्मतिः कारुण्यपण्यापणं जैनेन्द्रं मतम् अन्यदर्शनसमं मन्यते सः पीयूषं विषवत् , जलं ज्वलनवत् , तेजः तमस्तोमवत् , मित्रं शात्रववत्, स्रजं भुजगवत् , चिन्तामणिं लोष्ठवत् , ज्योत्स्नां ग्रीष्मजघर्मवत् मनुते। अर्थ ___ जो अज्ञानी पुरुष करुणारूपी वस्तु की प्राप्ति के लिए आपण (हाट) के समान जैनेन्द्रशासन को अन्यदर्शन-बौद्ध, नैयायिक आदि के समान मानता है वह अमृत को विष के समान, जल को अग्नि के समान, प्रकाश को अन्धकारपुंज के समान, मित्र को १-२. शार्दूलविक्रीडितवृत्त। - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy