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श्लोक १४-१७ 'किं ध्यानेन भवत्वशेषविषयत्यागैस्तपोभिः कृतं,
पूर्ण भावनयाऽलमिन्द्रियदमैः पर्याप्त'माप्तागमैः । किंत्वेकं भवनाशनं कुरु गुरुप्रीत्या गुरोः शासनं,
सर्वे येन विना विनाथबलवत्स्वार्थाय नालं गुणाः ॥१६॥ अन्वयःध्यानेन किम् ? अशेषविषयत्यागैर्भवतु । तपोभिः कृतम् । भावनया पूर्णम्। इन्द्रियदमैः अलम् । आप्तागमैः पर्याप्तम् । किन्तु गुरोः एकं भवनाशनं शासनं गुरुप्रीत्या कुरु । येन विना सर्वे गुणाः विनाथबलवत् स्वार्थाय अलं न। अर्थ__गुरु के शासन-दिशानिर्देशन के बिना ध्यान करने से क्या प्रयोजन? समस्त विषयों का त्याग करने से भी क्या? तप का आचरण करने से क्या लाभ? भावना का अभ्यास करने से भी क्या? इन्द्रियों के निग्रह करने का क्या प्रयोजन? तथा आप्तपुरुषों द्वारा रचित आगमों के पठन से भी क्या? (ये सब गुरु के शासन के बिना निष्फल हैं।) अतः तुम गुरु के शासन को अत्यधिक प्रीति से स्वीकार करो, जो संसारभ्रमण का एकमात्र निवारक है तथा जिसके बिना ध्यानादि सभी गुण अपनी-अपनी अर्थसिद्धि में वैसे ही समर्थ नहीं होते, जैसे सेनापति के बिना सेना। ३. जिनमतप्रकरणम् इन देवं नादेवं न शुभगुरुमेवं न कुगुरुं,
न धर्म नाधर्म न गुणपरिणद्धं न विगुणम् । न कृत्यं नाकृत्यं न हितमहितं नापि निपुणं,
विलोकन्ते लोका जिनवचनचक्षुर्विरहिताः।।१७।।
अन्वयः
जिनवचनचक्षुर्विरहिता लोका न देवं नादेवं, न शुभगुरुं न कुगुरुं, न धर्म नाधर्मं, न गुणपरिणद्धं न विगुणं, न कृत्यं नाकृत्यम् एवं न हितं नापि अहितं निपुणं विलोकन्ते।
अर्थ
जिनवचनरूप चक्षुओं से रहित व्यक्ति सुदेव और कुदेव, सुगुरु और कुगुरु, धर्म और अधर्म, गुणयुक्त और गुणरहित मनुष्य, करणीय और अकरणीय कार्य में विवेक १. शार्दूलविक्रीडितवृत्त। २. अत्र किम् , भवतु, कृतम् , पूर्णम् , अलम् ,पर्याप्तमित्येते निषेधार्थेऽव्ययाः। ३. शिखरिणीवृत्त। For Private & Personal Use Only
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