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________________ १२ सिन्दूरप्रकर 'विदलयति कुबोधं बोधयत्यागमार्थं, सुगतिकुगतिमार्गों पुण्यपापे व्यनक्ति। अवगमयति कृत्याकृत्यभेदं गुरुयों, भवजलनिधिपोतस्तं विना नास्ति कश्चित् ॥१४॥ अन्वयःयो गुरुः कुबोधं विदलयति, आगमार्थं बोधयति, सुगतिकुगतिमार्गों पुण्यपापे व्यनक्ति, कृत्याकृत्यभेदं अवगमयति, तं (गुरु) विना (अन्यः) कश्चित् भवजलनिधिपोतः नास्ति। अर्थ जो गरु कबोध-मिथ्याज्ञान का नाश करता है, आगमों के अर्थ का बोध कराता है, सुगति और दुर्गति के मार्ग के हेतुभूत पुण्य-पाप को व्यक्त करता है, कृत्य और अकृत्य के भेद की अवगति देता है उस गुरु के बिना भवसागर से पार लगाने वाला अन्य कोई प्रवहण-पोत नहीं है। 'पिता माता भ्राता प्रियसहचरी सूनुनिवहः, सहृत्स्वामी माद्यत्करिभटरथाश्वः परिकरः। निमज्जन्तं जन्तुं नरककुहरे रक्षितुमलं, गुरोर्धर्माऽधर्मप्रकटनपरात् कोऽपि न परः ।।१५।। अन्वयःधर्माऽधर्मप्रकटनपरात् गुरोः परः कोऽपि पिता माता भ्राता प्रियसहचरी सूनुनिवहः सुहृत् माद्यत्करिभटरथाश्वः स्वामी परिकरः नरककुहरे निमज्जन्तं जन्तुं रक्षितुमलं न। अर्थ धर्म-अधर्म को प्रकट करने में तत्पर गुरु से बढ़कर दूसरा कोई भी व्यक्ति नरक के गढे में पड़ने वाले प्राणी की रक्षा करने में समर्थ नहीं है। फिर चाहे वह पिता हो, माता हो या भाई हो। चाहे वह प्रियपत्नी हो, पुत्रों का समूह हो अथवा मित्र हो। या चाहे मदोन्मत्त हाथी, सुभट, रथ और अश्वों का स्वामी एवं अनुचरवर्ग ही क्यों न हो? १. मालिनीवृत्त। २. शिखरिणीवृत्त। ३. माद्यन्तो मदोन्मत्ताः करिणो गजाः भटाः सुभटा: रथाः अश्वाश्च यस्य स एवंविधः सामर्थ्यवान् स्वामी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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