SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्लोक १०-१३ ११ 'यः पुष्पैर्जिनमर्चति स्मितसुरस्त्रीलोचनैः सोऽर्च्यते, यस्तं वन्दत एकशस्त्रिजगता सोऽहर्निशं वन्द्यते। यस्तं स्तौति परत्र वृत्रदमनस्तोमेन स स्तूयते, ____ यस्तं ध्यायति क्लृप्तकर्मनिधनः स ध्यायते योगिभिः ।।१२।। अन्वयः यः पुष्पैर्जिनमर्चति सः स्मितसुरस्त्रीलोचनैः अर्च्यते। यः एकशः तं वन्दते सः अहर्निशं त्रिजगता वन्द्यते। यः तं स्तौति सः परत्र वृत्रदमनस्तोमेन स्तूयते। यः तं ध्यायति सः क्लृप्तकर्मनिधनः योगिभिः ध्यायते। अर्थ ___ जो मनुष्य (भावना के) पुष्षों से जिनेश्वरदेव की अर्चना करता है वह देवांगनाओं के प्रसन्न नेत्रों से अर्चित होता है। जो एक बार भी जिनभगवान को वन्दन करता है वह तीन लोक के द्वारा अहर्निश वन्दित होता है। जो उनकी स्तुति करता है वह परलोक (स्वर्ग) में इन्द्रसमूह के द्वारा स्तुत्य होता है और जो उनका ध्यान करता है वह कृत समस्त कर्मों का क्षय कर सिद्धावस्था को प्राप्त होता है। योगिपुरुष भी उनका ध्यान करते हैं। २. गुरुमहत्त्वप्रकरणम् ३अवद्यमुक्ते पथि यः प्रवर्तते, प्रवर्तयत्यन्यजनं च निस्पृहः। स एव सेव्यः स्वहितैषिणा गुरुः स्वयं तरंस्तारयितुं क्षमः परम् ।।१३।। अन्वयःस्वहितैषिणा स एव गुरुः सेव्यः यः अवद्यमुक्ते पथि प्रवर्तते (तथा) निःस्पृहः (सन् ) अन्यजनं च प्रवर्त्तयति। (पुनश्च यः) स्वयं (संसारसमुद्र) तरन् (सन्) परं तारयितुं क्षमः। अर्थ-- आत्महित चाहने वाले व्यक्ति के लिए वही गुरु सेव्य-उपासनीय है जो स्वयं पापवर्जित मार्ग अर्थात् धर्मपथ पर प्रवर्तित होता है तथा निस्पृहभाव से दूसरों को उसी पथ पर प्रवर्तित करता है। एवं जो इस संसारसमुद्र से स्वयं तरता हुआ दूसरों को तारने-पार लगाने में सक्षम होता है। १. शार्दूलविक्रीडितवृत्त। २. क्लृप्तं रचितं कृतं कर्मणां (अष्टकर्मणां) निधनं-विनाशो येन सः। ३. वंशस्थवृत्त। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy