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________________ १० 'स्वर्गस्तस्य गृहाङ्गणं सहचरी साम्राज्यलक्ष्मीः शुभा, सौभाग्यादिगुणावलिर्विलसति स्वैरं वपुर्वेश्मनि । संसारः सुतरः शिवं करतलक्रोडे लुठत्यञ्जसा, यः श्रद्धाभरभाजनं जिनपतेः पूजां विधत्ते जनः । । १० । । अन्वयः - यो जनः श्रद्धाभरभाजनं (सन्) जिनपतेः पूजां विधत्ते तस्य गृहाङ्गणं स्वर्गः, शुभा साम्राज्यलक्ष्मीः सहचरी, वपुर्वेश्मनि सौभाग्यादिगुणावलिः स्वैरं विलसति, संसारः सुतरः, शिवम् अञ्जसा करतलक्रोडे लुठति । अर्थ सिन्दूरप्रकर जो मनुष्य अत्यधिक श्रद्धायुक्त होकर तीर्थंकर की अर्चना करता है उसका गृहआंगन स्वर्गतुल्य हो जाता है अथवा स्वर्ग गृहांगण के समान निकट हो जाता है, मनोहारी साम्राज्यलक्ष्मी उसकी सहचरी हो जाती है, उसके शरीररूपी गृह में सौभाग्य आदि (धैर्य, औदार्य और चातुर्य आदि) गुणों की श्रेणी स्वेच्छा से रमण करती है, उसके लिए संसार सुतर - सुखपूर्वक तैरने योग्य हो जाता है और मोक्ष शीघ्र ही उसके हथेली के मध्य लुठने लगता है, हस्तगत हो जाता है। कदाचिन्नातङ्कः कुपित इव पश्यत्यभिमुखं, विदूरे दारिद्र्यं चकितमिव नश्यत्यनुदिनम् । विरक्ता कान्तेव त्यजति कुगतिः सङ्गमुदयो, न मुञ्चत्यभ्यर्णं सुहृदिव जिनाच रचयतः ॥ ११ ॥ अन्वयः - जिनाच रचयतः आतङ्कः कुपित इव कदाचिद् अभिमुखं न पश्यति । दारिद्र्यं चकितमिव अनुदिनं विदूरे नश्यति । कुगतिः विरक्ता कान्तेव समं त्यजति । उदयः सुहृदिव अभ्यर्णं न मुञ्चति । अर्थ Jain Education International जो जिनेश्वरदेव की अर्चा करता है उसके भय अथवा रोग कुपित व्यक्ति की भान्ति कभी सम्मुख नहीं देखता, कभी नहीं सताता । उसकी दरिद्रता मानो संत्रस्त होकर सदा दूर से पलायन कर देती है । विरक्त कान्ता की तरह कुगति उसका संग छोड़ देती है और मित्र की भांति प्रगति उसके सामीप्य को नहीं छोड़ती । १. शार्दूलविक्रीडितवृत्त । २. शिखरिणीवृत्त । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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