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श्लोक ७-९
अन्वयः
यदि निर्वृतिपदे गन्तुं (तव) मनः अस्ति (तदा त्वं) तीर्थकरे गुरौ जिनमते संघे च भक्तिं (कुरुष्व)। हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहाद्युपरमं (कुरुष्व)। क्रोधाद्यरीणां जयं (कुरुष्व) । सौजन्यं गुणिसङ्गम् इन्द्रियदमं दानं तपो भावनां वैराग्यं च कुरुष्व। अर्थ
हे भव्य! यदि तुम्हारा मन मोक्षपद को प्राप्त करने का है तो तुम तीर्थकर, गुरु, जिनशासन और चतुर्विध धर्मसंघ (साधु-साध्वी,श्रावक-श्राविका) की पर्युपासना करो, हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्मचर्य और परिग्रह का निवर्तन करो, क्रोध आदि (मान, माया, लोभ) शत्रुओं पर विजय प्राप्त करो, सुजनता का अभ्यास करो, गुणिजनों की संगति करो, इन्द्रियों का निग्रह करो, सुपात्र को दान दो, अनशन आदि तपस्या को स्वीकार करो, अनित्य आदि भावनाओं से स्वयं को भावित करो और विरक्ति का समाचरण करो।
१. जिनपूजनप्रकरणम्
'पापं लुम्पति दुर्गतिं दलयति व्यापादयत्यापदं,
पुण्यं संचिनुते श्रियं वितनुते पुष्णाति नीरोगताम्। सौभाग्यं विदधाति पल्लवयति प्रीतिं प्रसूते यशः,
स्वर्ग यच्छति निर्वृतिं च रचयत्यार्हतां निर्मिता ।।९।। अन्वयःअर्हतां निर्मिता अर्चा पापं लुम्पति, दुर्गतिं दलयति, आपदं व्यापादयति, पुण्यं संचिनुते, श्रियं वितनुते, नीरोगतां पुष्णाति, सौभाग्यं विदधाति, प्रीतिं पल्लवयति, यशः प्रसूते, स्वर्गं यच्छति, निर्वृतिं च रचयति। अर्थ
अर्हतों की की जाने वाली अर्चा (भावपूजा, गुणोत्कीर्तन, पर्युपासना आदि) पापों का नाश करती है, दुर्गति का निवारण करती है, आपदाओं को विनष्ट करती है, पुण्य का संचय करती है, लक्ष्मी का विस्तार करती है, नीरोगता को पुष्ट करती है, सौभाग्य को बनाए रखती है, प्रीति को पल्लवित करती है, यश को उत्पन्न करती है, स्वर्ग को देती है और मोक्षरचना करती है।
१. शार्दूलविक्रीडितवृत्त।
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