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अन्वयः -
ये अधमा लब्धं धर्मं परिहृत्य भोगाशया धावन्ति ते भवने कल्पद्रुमं प्रोन्मूल्य धत्तूरतरुं वपन्ति । (पुनः) ते जडाः चिन्तारत्नमपास्य काचशकलं स्वीकुर्वते । (पुनः) ते गिरीन्द्रसदृशं द्विरदं विक्रीय रासभं क्रीणन्ति ।
अर्थ
जो अधम पुरुष भोगों की कामना से प्राप्त धर्म को छोड़कर विषयों की ओर हैं, उनमें प्रवृत्त होते हैं वे अपने घर में उत्पन्न कल्पवृक्ष को जड़मूल से उखाड़कर धतूरे के वृक्ष का वपन करते हैं। वे मूर्ख व्यक्ति (अपने हाथ से ) चिन्तामणि रत्न को दूर फेंककर काच के टुकड़ों को स्वीकार करते हैं और वे हिमालय के सदृश विशालकाय हाथी को बेचकर गधे को खरीदते हैं।
'अपारे संसारे कथमपि समासाद्य नृभवं,
ब्रुडन्
न धर्म यः कुर्याद् विषयसुखतृष्णातरलितः । पारावारे प्रवरमपहाय प्रवहणं,
स मुख्यो मूर्खाणामुपलमुपलब्धुं प्रयतते ।।७।।
अन्वयः -
अपारे संसारे कथमपि नृभवं समासाद्य यो विषयसुखतृष्णातरलितः (सन् ) धर्मं न कुर्यात् स मूर्खाणां मुख्यः पारावारे ब्रुडन् प्रवरं प्रवहणम् अपहाय उपलम् उपलब्धुं प्रयतते ।
अर्थ
इस असीम संसार में किसी प्रकार मनुष्यजन्म को पाकर भी जो मनुष्य विषयकामभोगों के सुख की तृष्णा से अस्थिर होकर धर्म का आचरण नहीं करता वह मूर्खशिरोमणि समुद्र में डूबता हुआ उत्तम नौका को छोड़कर तैरने के लिए पाषाणखंड को पाने का प्रयत्न करता है।
एकविंशतिः प्रकरणानि
सिन्दूरप्रकर
भक्तिं तीर्थकरे गुरौ जिनमते संघे च हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहाद्युपरमं क्रोधाद्यरीणां जयम् ।
सौजन्यं गुणिसङ्गमिन्द्रियदमं दानं तपो भावनां,
१. शिखरिणीवृत्त । २. शार्दूलविक्रीडितवृत्त ।
३. अत्र व्युपरमोऽपि पाठो लभ्यते ।
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वैराग्यं च कुरुष्व निर्वृतिपदे यद्यस्ति गन्तुं मनः ।।८।।
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