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________________ श्लोक २-६ मनुष्यजन्मनो दुर्लभता श्यः प्राप्य दुष्प्रापमिदं नरत्वं, धर्मं न यत्नेन करोति मूढः । क्लेशप्रबन्धेन स लब्धमब्धौ, चिन्तामणिं पातयति प्रमादात् ।।४।। अन्वयःयो मूढः इदं दुष्प्रापं नरत्वं प्राप्य यत्नेन धर्म न करोति सः क्लेशप्रबन्धेन लब्धं चिन्तामणिं प्रमादात् अब्धौ पातयति। अर्थ____ जो मूढ व्यक्ति इस दुर्लभ मनुष्यत्व को पाकर प्रयत्नपूर्वक धर्म की आराधना नहीं करता वह कष्टों की अविच्छिन्नता से प्राप्त चिन्तामणि रत्न को प्रमादवश समुद्र में गिरा देता है। २स्वर्णस्थाले क्षिपति स रजः पादशौचं विधत्ते, पीयूषेण प्रवरकरिणं वाहयत्येध'भारम्। चिन्तारत्नं विकिरति कराद् वायसोड्डायनार्थ, यो दुष्प्रापं गमयति मुधा मर्त्यजन्म प्रमत्तः।।५।। अन्वयःयः प्रमत्तः दुष्प्रापं मर्त्यजन्म मुधा गमयति स स्वर्णस्थाले रजः क्षिपति, पीयूषण पादशौचं विधत्ते, प्रवरकरिणम एधभारं वाहयति, वायसोड्डायनार्थं चिन्तारत्नं करात् विकिरति। अर्थ जो प्रमत्त व्यक्ति दुर्लभ मनुष्यजन्म को व्यर्थ गंवाता है वह सोने के थाल में धूलि फेंकता है, पैरों को अमृत से धोता है, श्रेष्ठ हाथी को लकड़ियों का भार ढोने में प्रयुक्त करता है और कौए को उड़ाने के लिए हाथ से चिन्तामणि रत्न को फेंक देता है। 'ते धत्तूरतरं वपन्ति भवने प्रोन्मूल्य कल्पद्रुमं, चिन्तारत्नमपास्य काचशकलं स्वीकुर्वते ते जडाः। विक्रीय द्विरदं गिरीन्द्रसदृशं क्रीणन्ति ते रासभं, ये लब्धं परिहत्य धर्ममधमा धावन्ति भोगाशया ।।६।। १. इन्द्रवज्रावृत्त। २. मन्दाक्रान्तावृत्त। २. इध्यतेऽनेन एन्ध इत्यत्र 'अवोदधौद्म...' (अष्टा.४।२।४७) इति कृतनलोपो निपात्यते 'हसाद घ' (अष्टा. ६।१।११) चेति घञ्प्रत्ययः। ३. शार्दूलविक्रीडितवृत्त। - - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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