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सिन्दूरप्रकर ग्रन्थकर्तुरावेदनम्
सन्तः सन्तु मम प्रसन्नमनसो वाचां विचारोद्यताः,
- सूतेऽम्भः कमलानि तत्परिमलं वाता वितन्वन्ति यत्। किं वाभ्यर्थनयाऽनया यदि गुणोऽस्त्यासां ततस्ते स्वयं, . कर्तारः प्रथनं न चेदथ यशःप्रत्यर्थिना तेन किम् ।।२।। अन्वयःवाचां विचारोद्यताः सन्तः मम प्रसन्नमनसः सन्तु । यत् अम्भः कमलानि सते, तत्परिमलं वाता वितन्वन्ति। वा अनया अभ्यर्थनया किम् ? यदि आसां गुणोऽस्ति ततस्ते स्वयं प्रथनं कर्तारः, अथ चेद् न, तेन यशःप्रत्यर्थिना किम् ? अर्थ
वाणी (ग्रन्थरचना) की समालोचना करने में तत्पर सज्जनपुरुष मेरे पर प्रसन्नमन वाले हों। जिस प्रकार पानी कमलों को उत्पन्न करता है और वायु उनके परिमल को फैलाती है। (उसी प्रकार मैंने ग्रन्थ की रचना की है, इस ग्रन्थ की गुणवत्ता का मूल्यांकन और विस्तार तो सज्जनपुरुष ही कर सकेंगे)। फिर सन्तजनों (विद्वज्जनों) के आगे मेरी इस अभ्यर्थना से क्या प्रयोजन? यदि मेरी वाणी (काव्यरचना) में गुण हैं तो वे सन्तजन मेरी अभ्यर्थना के बिना ही स्वयं इसका विस्तार कर देंगे, यदि गुणवत्ता नहीं है तो उस विस्तार से क्या, जो यश का नाश करने वाला हो। धर्मस्य प्राधान्यम्
त्रिवर्गसंसाधनमन्तरेण पशोरिवायुर्विफलं नरस्य ।
तत्रापि धर्म प्रवरं वदन्ति न तं विना यद् भवतोऽर्थकामौ३ ।।३।। अन्वयःत्रिवर्गसंसाधनमन्तरेण नरस्य आयुः पशोरिव विफलम्। तत्रापि धर्म प्रवरं वदन्ति । यत् तं विना (धर्म विना) अर्थकामौ न भवतः। अर्थ___ धर्म, अर्थ और काम-इस पुरुषार्थत्रयी को प्राप्त किए बिना मनुष्य का जीवन पश् की भान्ति निष्फल है। उनमें भी धर्म को श्रेष्ठ कहा जाता है, क्योंकि धर्म के बिना अर्थ और काम भी नहीं होते। १. शार्दूलविक्रीडितवृत्त। २. उपजातिवृत्त। ३. भारतीय दर्शन में चार पुरुषार्थ माने गए हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। प्रस्तुत श्लोक में
केवल पुरुषार्थत्रयी की चर्चा है।
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