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________________ ॐ नमोऽर्हद्भ्यः अथ सिन्दूरप्रकरः मंगलाचरणम् सिन्दूरप्रकरस्तपःकरिशिरःकोडे कषायाटवी दावार्चिर्निचयः प्रबोधदिवसप्रारम्भसूर्योदयः। मुक्तिस्त्रीवदनैककुङ्कुमरसः२ श्रेयस्तरोः पल्लव- प्रोल्लासः क्रमयोर्नखद्युतिभरः पार्श्वप्रभोः पातु वः ।।१।। अन्वयःपार्श्वप्रभोः क्रमयोर्नखद्युतिभरः वः पातु। कथंभूतो नखद्युतिभरः? तपःकरिशिरःक्रोडे सिन्दूरप्रकरः,कषायाटवीदावार्चिर्निचयः,प्रबोधदिवसप्रारम्भसूर्योदयः, मुक्तिस्त्रीवदनैककुङ्कुमरसः, श्रेयस्तरोः पल्लवप्रोल्लासः। अर्थ प्रभु पार्श्वनाथ के चरणनखों की अत्यधिक (रक्तिम) आभा तुम्हारी रक्षा करे। वह आभा तपरूप हाथी के कुम्भस्थल पर लगे सिन्दूरपुंज के समान रक्ताभवर्ण वाली, कषायरूप अटवी के दावानल के ज्वालासमूह के तुल्य, ज्ञानरूप दिवस के उदय के लिए सूर्योदय के समान, मुक्तिरूपी स्त्री के मुख पर लगने वाले एकमात्र कुंकुम के लेप के सदृश तथा कल्याणरूप वृक्ष के नवपल्लवों के उद्गम के समान है। १. शार्दूलविक्रीडितवृत्त। २. 'मुक्तिस्त्रीकुचकुम्भकुङ्कुमरसः' - ऐसा पाठ मानने पर इसका अर्थ होगा-मुक्तिरूपी स्त्री के स्तनरूप कुम्भ पर लगने वाले कुंकुम के लेप के तुल्य । ३. श्लोकगत सभी उपमाएं रक्तिमवर्ण को अभिव्यक्त करती हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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