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सिन्दूरप्रकर
मोक्ष को वश में करने वाला, समृद्धि - ऐश्वर्य का जनक, सुजनता को पुनर्जीवित करने वाला, कीर्त्ति का क्रीडागृह तथा प्रभाव का आश्रयस्थान है।
'यो यस्माद् भस्मीभवति वनवह्नेरिव वनं, निदानं दुःखानां यदवनिरुहाणां जलमिव । न यत्र स्याच्छाया । तप इव तपःसंयमकथा, कथंचित्तन्मिथ्यावचनमभिधत्ते न मतिमान् ।। ३०॥
अन्वयः -
यद्
वनवह्नेः वनमिव यस्माद् यशो भस्मीभवति, अवनिरुहाणां जलमिव दुःखानां निदानम् आतपे छाया इव यत्र तपःसंयमकथा न, तत् मिथ्यावचनं मतिमान् कथंचित् न अभिधत्ते । अर्थ
जैसे वन की अग्नि अरण्य को जलाकर भस्मीभूत कर देती है वैसे ही मिथ्यावचन यश को भस्मसात् कर देता है। जैसे वृक्षों की उत्पत्ति का हेतु जल होता है वैसे ही दुःखोत्पत्ति का कारण मिथ्यावचन है । जैसे सूर्य के आतप में छाया नहीं होती वैसे ही मिथ्यावचन में तप और संयम की बात भी नहीं होती । अतः मतिमान् पुरुष किसी भी प्रकार से मिथ्यावचन-असत्यवचन नहीं बोलता ।
असत्यमप्रत्ययमूलकारणं, कुवासनासद्म समृद्धिवारणम् । विपन्निदानं परवञ्चनोर्जितं, कृतापराधं कृतिभिर्विवर्जितम् ||३१||
अन्वयः -
अप्रत्ययमूलकारणम्, कुवासनासद्द्म, समृद्धिवारणम्, विपन्निदानम्, परवञ्चनोर्जितम्, कृतापराधम् असत्यं कृतिभिः विवर्जितम् ।
अर्थ
सुधीजनों ने असत्य का विवर्जन किया है, क्योंकि वह अविश्वास का मूल कारण, कुसंस्कारों का घर, समृद्धि को रोकने वाला, विपत्तियों का कारण, दूसरों को ठगने में समर्थ तथा अपराधों को जन्म देने वाला है।
'तस्याग्निर्जलमर्णवः स्थलमरिर्मित्रं सुराः किङ्कराः,
कान्तारं नगरं गिरिर्गृहमहिर्माल्यं मृगारिर्मृगः । पातालं बिलमस्त्रमुत्पलदलं व्यालः शृगालो विषं,
पीयूषं विषमं समं च वचनं सत्याञ्चितं वक्ति यः ।। ३२ ।।
१. शिखरिणीवृत्त ।
२. वंशस्थवृत्त । ३. शार्दूलविक्रीडितवृत्त ।
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